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अकबर- प्रतिबोधक युगप्रधान श्री जिनचन्द्रसूरि
[ भंवरलाल नाहटा ]
मणिधारीजी के स्वर्गवास के पचीस वर्ष पश्चात् आर्यावर्त्त अपनी स्वाधीनता खोकर यवन-शासन की दुर्दान्त चक्की में बुरी तरह से पिसा जाने लगा । उसके सहस्रा ब्दियों से संचित धर्म, संस्कृति, साहित्य और कला को अपार क्षति पहुँची । यदि समय-समय पर महापुरुषों ने जन्म लेकर अपने लोकोत्तर प्रभाव से जनता का मनोबल व चारित्रबल ऊंचा न उठाया होता तो जिस रूप में समाज विद्यमान है, कभी नहीं रहता । महापुरुषों का योगबल संसार की कल्याण-सिद्धि करता है ।
वसतिमार्ग प्रकाशक श्री जिनेश्वरसूरिजी के पश्चात् क्रमशः उनकी पट्ट परम्परा में जो भी महापुरुष हुए, वे क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्यादि प्रजा को प्रतिबोध देकर धार्मिक समाज का निर्माण करते गए, जिससे जैन समाज का गौरव बढ़ा | न केवल त्यागी वर्ग में ही उच्च चारित्र का प्रतिष्ठापन हुआ बल्कि जैन श्रावकों में भी अनेकों श्रेष्ठी, मंत्री, सेनापति आदि प्रभावशाली, धर्मप्राण और परोपकारी व्यक्ति हुए जिन्होंने देश और समाज की सेवा में अपना सर्वस्व उत्सर्ग कर दिया । राज्य शासन में समय-समय पर जैनाचार्यों व जैन गृहस्थों - श्रावकों का भी बड़ा भारी वर्चस्व रहा है। अपनी उदारता और प्रभाव के कारण जैनेतर समाज से जैन समाज की क्षति कम हुई और तीर्थ व धर्मरक्षा में शासकों से बड़ा भारी सहयोग भी मिलता रहा । चौदहवीं शताब्दी में तीसरे दादा श्री जिनकुशलसूरिजी और शासन - प्रभावक श्री जिनप्रभसूरिजी का जैन शासन पर बड़ा उपकार हुआ । उसी परम्परा में चतुर्थ दादा साहब श्री जिनचन्द्रसूरिजी हुए जो युगप्रधान महापुरुष थे। उन्होंने हजारों
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मुमुक्षुओं को शुद्ध चारित्र मार्ग के पथिक बनाये । धर्मक्रान्ति करके जैन धर्म में आयी हुई विकृतियों का परिष्कार किया। अकबर, जहांगीर एवं हिन्दू राजा-महाराजाओं को अपने चारित्रबल से प्रभावित - प्रतिबोधित कर जैन शासन की महान् प्रभावना की। उन्हीं का संक्षिप्त परिचय यहां देना अभीष्ट है ।
वीरप्रसू मारवाड़ के खेतसर गाँव में रोहड़ गोत्रीय ओसवाल श्रेष्ठी श्रीवन्तशाह को धर्मपत्नी श्रिया देवी की कुक्षि से सं० १५६५ चैत्र कृष्ण १२ के दिन आपने जन्म लिया। माता-पिता ने आपका गुणनिष्पन्न नाम 'सुलतानकुमार' रखा जो आगे चलकर जैन समाज के सुलतान सम्राट हुए । बाल्यकाल में ही अनेक कलाओं के पारगामी हो गए विशेषतः पूर्व जन्म संस्कारवश धर्म की ओर आपका झुकाव अत्यधिक था ।
सं० १६०४ में खरतरगच्छ नायक श्रीजिनमाणिक्यसूरि जी महाराज के पधारने पर उनके उपदेशों का आप पर बड़ा असर हुआ और आपकी वैराग्य भावना से माता-पिता को दीक्षा लेने की आज्ञा प्रदान करने को विवश होना पड़ा। 8 वर्ष को आयु वाले सुलतान कुमार ने बड़े ही उल्लासपूर्वक संयम मार्ग स्वीकार किया। गुरु महाराज ने आपका नाम 'सुमतिधीर' रखा। प्रतिभा सम्पन्न और विलक्षण बुद्धिशाली होने से आपने अल्पकाल में ही ग्यारह अंग आदि सकल शास्त्र पढ़ डाले तथा वाद-विवाद, व्याख्यान, कलादि में पारगामी होकर गुरु महाराज के साथ देश-विदेश में विचरण करने लगे ।
उस समय जैन साधुओं में थोड़ा आचार-शैथिल्य का
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