________________ परलोक में दुर्गति का पात्र बना देगा / किन्तु काल की विषम-बयार ने महावीर की इस ज्योति-शिखा को अधिक समय तक अकम्प नहीं रहने दिया। वीर निर्वाण के पांच सौ साल ही बीते थे कि 'साधना के मार्ग में परिग्रह की भूमिका' को लेकर मत-भिन्नता प्रारम्भ हो गई थी, फिर अगले सौ साल के भीतर महावीर के अनुयायी संतों में 'पंथ-भेद' हो गया / आज महावीर के अनुयायियों में दिगम्बर-श्वेताम्बर नाम से जो दो धारायें प्रवर्तमान हैं, उनकी पृथकता का मूल कारण अन्य कोई सिद्धान्त-भेद नहीं, मात्र परिग्रह संबंधी अवधारणाओं की . भिन्नता ही थी। पंथ-भेद के इतिहास में हम पाते हैं कि पंथ भेद के समय हिंसा-झूठ-चोरी और कुशील को पाप मानने में सभी सम्प्रदाय सहमत थे, इस मान्यता में कसी को कोई एतराज नहीं था। उन चार पापों के बारे में सभी साधक एक मत थे, परन्तु एक विशेष वर्ग उनके बीच ऐसा बन गया जो बाह्य परिग्रह और अंतरंग परिग्रह के बीच जिस 'निमित्त-नैमित्तिक संबंध' की व्याख्या की गई थी, उसे नींव की शिला मानकर हमारे परम आराध्य दिगम्बर आचार्य अपनी श्रुतसाधना के प्रासाद खड़े करते रहे। इसके विपरीत जिन्होंने अपनी आसक्ति और संकल्प-. हीनता को छिपाने के लिये तरह-तरह के तर्क सामने रखकर, परिग्रह को साधना में सहायक मानकर संग्रहणीय और उपकारी मानकर ग्रहण कर लिया। वे हमारे दूसरे धर्म-बन्धु हैं। इस प्रकार परिग्रह-प्रियता और केवल परिग्रह-प्रियता ही महावीर के शिष्यों में 'पंथ-भेद' का कारण बनी। प्रारम्भिक अवस्था में उनके बीच अन्य कोई मत-मतान्तर नहीं थे। महावीर के निर्वाण के ढाई हजार वर्ष बाद भी यदि उनके संघ की मूल परम्पराएं सुरक्षित हैं तो उसका मुख्य कारण यही है कि उनकी परम्परा के संवाहक पूज्य आचार्यों और मुनियों ने आरम्भ-परिग्रह के समस्त कार्यों से, नवकोटि त्याग पूर्वक स्वयं को दृढ़ता पूर्वक बचाकर रखने का प्रयत्न किया है और श्रावकों ने भौतिक प्रतिस्पर्धा और परिग्रह-प्रतिष्ठा की चकाचौंध वाले इस युग में भी, वीतराग धर्म के महान उपासक परिग्रह को 'पाँचवाँ पाप' स्वीकार किया है। उनके संत और श्रावक, अपने आपको जितना अनासक्त रखते हुये आगे बढ़ रहे हैं, वे उतने ही पूज्य हैं, उतने ही प्रणम्य हैं। नीरज जैन, शांति सदन, सतना (म.प्र.) महावीर जयन्ती 2011 Man is the Architect of his own fate. 1-LEKHAN DMKI162