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महावीर का अनुपम उपहार : अपरिग्रह
- नीरज जैन
भगवान महावीर के द्वारा बताये धर्म को यदि एक शब्द में कहना हो तो वह शब्द होगा 'अहिंसा और उस धर्म तक पहुंचने के उपाय यदि गिनाना चाहें तो पहला उपाय होगा 'अपरिग्रह।
पाप तो पाँच हैं-हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह । परन्तु आज मनुष्य के जीवन में परिग्रह ही शेष चारों पापों का मूल बन रहा है। शायद यही कारण रहा होगा कि भगवान महावीर ने अपरिग्रह को अपने उपदेश में प्रमुखता से बार-बार दोहराया । महावीर की वाणी को व्याख्यापित करने वाले संतों ने तो स्पष्ट ही परिग्रह-लिप्सा को शेष चार पापों का जनक बताया है। समणसुत्तं में एक गाथा आती है
संग णिमित्तं मारइ, भणई अलीकं, करेन चोरिक्कं, सेवइ मेहुण-मिच्छं, अपरिमाणो कुणदि पावं ।
मनुष्य परिग्रह के लिये ही हिंसा करता है । संग्रह के निमित्त ही झूठ बोलता है और उसी अभिप्राय से चोरी के कार्य करता है । कुशील भी मनुष्य के जीवन में परिग्रह की लिप्सा के माध्यम से ही आता है। केवल शारीरिक दुराचार ही कशील नहीं है। भाई-भाई के बीच सम्पत्ति को लेकर उपजा विवाद, माता-पिता का अपनी संतानों के बीच का तनाव या विवाद और पति-पत्नी के बीच की दूरियाँ, जहाँ परस्पर का शीलसौजन्य खण्डित हो जाता है, मर्यादायें टूट जाती हैं, वहाँ सबसे पहले शील ही तो टूटता है। भगवान महावीर की देशना में परिग्रह-लिप्सा को सबसे बड़ा पाप कहा गया है । पाँचों पाप परिग्रह की परिभाषा में आ जाते हैं क्योंकि उनकी जड़ परिग्रह ही है । इसीलिये लोभ को 'पाप का बाप' कहा गया है। उसी के माध्यम से शेष चार पाप हमारे जीवन में प्रवेश पा रहे हैं। लिप्सा ही वह छिद्र है जिसमें होकर हमारे व्यक्तित्व के प्रासाद में पाप की धारा का रिसाव हो रहा है।
परिग्रह के भेद अनेक हो सकते हैं और उसके अभिप्राय भी शुभ और अशुभ आदि कई प्रकार के हो कहे जासकते हैं, परन्तु एक क्षण के लिये भी यह भुलाया नहीं जाना चाहिये कि परिग्रह अपने आपमें पाँचवाँ पाप है। महावीर ने आरम्भ-परिग्रह के सभी कार्यों को 'सावद्य' यानी पाप रूप बताते हुये, श्रावक धर्म या 'सागार धर्म' को अपने जीवन निर्वाह के लिये सीमित परिग्रह की स्वीकृति देकर संतोष को व्रत कहकर धारण करने की समझाइस दी है। दिगम्बर मुद्रा धारण करके मुनियों और आर्यिकाओं के लिये उन्होंने नौ कोटि से, यानी कृतकारित-अनुमोदना, मन-वचन-काय और समरम्भ-समारम्भ-आरम्भ, सभी प्रकार से आरम्भपरिग्रह के त्याग को अनिवार्य और सबसे प्रमुख उपाय बताया है।
परिग्रह-पूजा ही महावीर के संघ-भेद का कारण बनी
महावीर स्वामी ने यह सुनिश्चित उपदेश दिया कि आत्म-साधना की यात्रा पूर्णत: अपरिग्रही होकर ही की जा सकती है। किसी भी हेतु के लिये परिग्रह की आशा, अभ्यर्थना या अभिप्राय, साधु परमेष्ठी को उस गरिमामय पूज्य पद से उतार कर लोक में हँसी का पात्र, और
Man ie the Architect of his own fate
I.LEKHAN PMS/1620