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________________ अध्याय २२ : नारायण हेमचन्द्र ७६ कुछ मिल जाता है और थोड़ा-बहुत मित्र लोग दे दिया करते हैं, वह काफी है। मैं तो सर्वत्र तीसरे दर्जेमें ही सफर करता हूं। अमेरिका तो डेकमें जाऊंगा।" नारायण हेमचंद्रकी सादगी बस उनकी अपनी थी; हृदय भी उनका वैसा ही निर्मल था। अभिमान छूतक नहीं गया था। लेखकके नाते अपनी क्षमतापर उन्हें आवश्यकतासे भी अधिक विश्वास था । हम रोज मिलते। हमारे बीच विचार तथा प्राचार-साम्य भी काफी था। दोनों अन्नाहारी थे। दोपहरको कई बार साथ ही भोजन करते । यह मेरा वह समय था, जब मैं प्रति सप्ताह सत्रह शिलिंगमें ही अपना गुजर करता और खाना खुद पकाया करता था। कभी मैं उनके मकानपर जाता तो कभी वह मेरे मकानपर आते । मैं अंग्रेजी ढंगका खाना पकाता था, उन्हें देसी ढंगके बिना संतोष नहीं होता था। उन्हें दाल जरूरी थी। मैं गाजर इत्यादिका रसा बनाता । इसपर उन्हें मुझपर बड़ी दया आती। कहींसे वह मूंग ढूंढ लाये थे। एक दिन मेरे लिए मूंग पकाकर लाये, जो मैंने बड़ी रुचिपूर्वक खाये। फिर तो हमारा इस तरहका देने-लेनेका व्यवहार बहुत बढ़ गया। मैं अपनी चीजोंका नमूना उन्हें चखाता और वह मुझे चखाते । इस समय कार्डिनल मैनिंगका नाम सबकी जबान पर था। डॉकके मजदूरोंने हड़ताल करदी थी। जॉनवर्स और कार्डिनल मैनिंगके प्रयत्नोंसे हड़ताल जल्दी बंद हो गई। कार्डिनल मैनिंगकी सादगीके विषयमें जो डिसरैलीने लिखा था, वह मैंने नारायण हेमचंद्रको सुनाया । "तब तो मुझे उस साधु पुरुषसे जरूर मिलना चाहिए।" "वह तो बहुत बड़े आदमी हैं, आपसे क्योंकर मिलेंगे ?" "इसका रास्ता मै बता देता हूं। आप उन्हें मेरे नामसे एक पत्र लिखिए कि मैं एक लेखक हूं। आपके परोपकारी कार्योंपर आपको धन्यवाद देनेके लिए प्रत्यक्ष मिलना चाहता हूं। उसमें यह भी लिख दीजिएगा कि मैं अंग्रेजी नहीं जानता, इसलिए---आपका नाम लिखिए-बतौर दुभाषियाके मेरे साथ रहेंगे ।" मैंने इस मजमूनका पत्र लिख दिया। दो-तीन दिनमें कार्डिनल मैनिंगका कार्ड आया। उन्होंने मिलनेका समय दे दिया था । हम दोनों गये। मैंने तो, जैसा कि रिवाज था, मुलाकाती कपड़े पहन
SR No.100001
Book TitleAtmakatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandas Karamchand Gandhi, Gandhiji
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1948
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationInterfaith & Interfaith
File Size70 MB
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