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________________ आत्म-कथा : भाग १ "1 'जी नहीं, मैं खुद ही आपके पास ग्राऊंगा। मेरे पास पाठमाला भी है । उसे लेता आऊंगा । 195 समय निश्चित हुआ । आगे चलकर हम दोनोंमें बड़ा स्नेह हो गया । नारायण हेमचंद्र व्याकरण जरा भी नहीं जानते थे । 'घोड़ा' क्रिया और 'दौड़ना' संज्ञा बन जाती। ऐसे मजेदार उदाहरण तो मुझे कई याद हैं । परंतु नारायण हेमचंद्र ऐसे थे, जो मुझे भी हजम कर जायं । वह मेरे अल्प व्याकरणज्ञानसे अपनेको भुला देनेवाले जीव न थे । व्याकरण न जाननेपर वह किसी प्रकार लज्जित न होते थे । [[ 'मैं आपकी तरह किसी पाठशालामें नहीं पढ़ा हूं। मुझे अपने विचार प्रकट करनेमें कहीं व्याकरणकी सहायताकी जरूरत नहीं दिखाई दी । अच्छा, आप बंगला जानते हैं ? मैं तो बंगला भी जानता हूं। मैं बंगालमें भी घूमा हूं । महर्षि नाथ टैगोरी पुस्तकोंका अनुवाद तो गुजराती जनताको मैंने ही दिया है । अभी कई भाषाओं के सुंदर ग्रंथोंके अनुवाद करने हैं। अनुवाद करनेमें भी मैं शब्दार्थपर नहीं चिपटा रहता । भावमात्र दे देनेसे मुझे संतोष हो जाता है । मेरे बाद दूसरे लोग चाहे भले ही सुंदर वस्तु दिया करें। मैं तो विना व्याकरण पढ़े मराठी भी जानता हूं, हिंदी भी जानता हूं और अब अंग्रेजी भी जानने लग गया हूँ । मुझे तो सिर्फ शब्द-भंडारकी जरूरत है । आप यह न समझ लें कि अकेली अंग्रेजी जान लेनेभरसे मुझे संतोष हो जायगा। मुझे तो फांस जाकर फ्रेंच भी सीख लेनी है | मैं जानता हूं कि फ्रेंच साहित्य बहुत विशाल है । यदि हो सका तो जर्मन जाकर जर्मन भाषा भी सीख लूंगा । 37 इस तरह नारायण हेमचंद्र की वाग्वारा वे रोक बहती रही। देश-देशांतरोंमें जाने व भिन्न-भिन्न भाषा सीखनेका उन्हें असीम शौक था । (C 'तब तो आप अमेरिका भी जरूर ही जावेंगे ? " 41 'भला इसमें भी कोई संदेह हो सकता है ? इस नवीन दुनियाको देखे बिना कहीं वापस लौट सकता हूं ? " 44 ' पर आपके पास इतना धन कहां है ? 44 'मुझे धनकी क्या जरूरत पड़ी है ? मुझे आपकी तरह तड़क-भड़क तो रखना है ही नहीं । मेरा खाना कितना और पहनना क्या ? मेरी पुस्तकोंसे
SR No.100001
Book TitleAtmakatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandas Karamchand Gandhi, Gandhiji
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1948
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationInterfaith & Interfaith
File Size70 MB
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