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________________ अध्याय १३, आखिर विलायतमें ४७ है। 'सर' तो नौकर अपने मालिकको अथवा अपने अफसरको कहता है।' फिर उन्होंने यह भी कहा कि 'होटलमें तो ख़र्चा ज्यादा पड़ेगा, इसलिए किसी कुटुंबके साथ रहना ठीक होगा।' इस संबंधमें विचार सोमवारतक मुल्तवी रहा । और भी कितनी ही हिदायतें देकर डाक्टर मेहता बिदा हुए। होटलमें तो हम दोनों को ऐसा मालूम हुआ मानो कहींसे आ घुसे हों। खर्च भी बहुत पड़ता था। माल्टासे एक सिंधी यात्री सवार हुए थे। मजूमदारकी उनके साथ अच्छी जान-पहचान हो गई थी। वह सिंधी यात्री लंदनके जानकार थे। उन्होंने हमारे लिए दो कमरे ले लेनेका जिम्मा लिया। हम दोनों रजामंद हुए और सोमवारको ज्यों ही सामान मिला, होटलका बिल चुकाकर उन कमरोंमें दाखिल हुए। मुझे याद है कि होटलका खर्चा लगभग तीन पौंड मेरे हिस्से में आया था। मैं तो भौंचक रह गया। तीन पौंड देकर भी भूखा ही रहा। वहांकी कोई चीज अच्छी नहीं लगी। एक चीज उठाई, वह न भाई । तब दूसरी ली। पर दाम तो दोनोंका देना पड़ता था। मैं अभीतक प्रायः बंबईसे लाये खाद्यपदार्थोंपर ही गुजारा करता रहा । उस कमरे में तो मैं बड़ा दुःखी हुआ। देश खूब याद आने लगा । माताका प्रेम साक्षात् सामने दिखाई पड़ता। रात होते ही रुलाई शुरू होती। घरकी तरह-तरहकी बातें याद आतीं। उस तूफानमें नींद भला क्यों आने लगी ? फिर उस दुःखकी बात किसीसे कह भी नहीं सकता था। कहने से लाभ ही क्या था ? मैं खुद न जानता था कि मुझे किस इलाजसे तसल्ली मिलेगी। लोग निराले, रहन-सहन निराली, मकान भी निराले और घरों में रहनेका तौर-तरीका भी निराला। फिर यह भी अच्छी तरह नहीं मालूम कि किस बातके बोल देनेसे अथवा क्या करनेसे यहांके शिष्टाचारका अथवा नियमका भंग होता है । इसके अलावा खान-पानका परहेज अलग; और जिन चीजोंको मैं खा सकता था, वे रूखी-सूखी मालूम होती थीं। इस कारण मेरी हालत सांप-छछूदर जैसी हो गई। विलायतमें अच्छा नहीं लगता था और देशको भी वापस नहीं लौट सकता था। फिर विलायत आ जानेके बाद तो तीन साल पूरा करके ही लौटने का निश्चय था।
SR No.100001
Book TitleAtmakatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandas Karamchand Gandhi, Gandhiji
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1948
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationInterfaith & Interfaith
File Size70 MB
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