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________________ ४६ आत्म-कथा : भाग १ किसी तरह दुःख-सुख उठा, हमारी यात्रा पूरी हुई और साउदेम्प्टन बंदरपर हमारे जहाजने लंगर डाला। मुझे याद पड़ता है, उस दिन शनिवार था। मैं जहाजपर काले कपड़े पहनता था। मित्रोंने मेरे लिए सफेद फलालैनके कोटपतलून भी बना दिये थे। मैंने सोचा था कि विलायतमें उतरते समय मैं उन्हें पहनूं । यह समझकर कि सफेद कपड़े ज्यादा अच्छे मालूम होते हैं, इस लिबासमें मैं जहाजसे उतरा। सितंबरके अंतिम दिन थे। ऐसे लिबासमें मैंने सिर्फ अपनेको ही वहां पाया । मेरे संदूक और उनकी तालियां ग्रिडले कंपनीके गुमाश्ते लोग ले गये थे। जैसा और लोग करते हैं, ऐसा ही मुझे भी करना चाहिए, यह समझकर मैंने अपनी तालियां भी उन्हें दे दी थीं ! मेरे पास चार परिचय-पत्र थे-- एक डाक्टर प्राणजीवन मेहताके नाम, दूसरा दलपतराम शक्लके नाम, तीसरा प्रिस रणजीतसिंहके नाम, और चौथा दादाभाई नौरोजीके नाम । मैंने माजदेष्टनले डाक्टर मेहताको नार कर दिया था। जहाजमें किसीने सलाह दी थी कि विक्टोरिया होटल में ठहरना ठीक होगा, इसलिए मजूमदार और मैं वहां गये । मैं तो अपने सफेद कपड़ोंकी शर्ममें ही बुरी तरह झेंप रहा था। फिर होटलमें जाकर खबर लगी कि कल रविवार होनेके कारण सोमवारतक प्रिंडलेके यहांसे सामान न आ पावेगा। इससे मैं बड़ी दुविधामें पड़ गया । ___ सात-आठ बजे डाक्टर मेहता आये। उन्होंने प्रेम-भावसे मेरा खूब मजाक उड़ाया। मैंने अनजानमें उनकी रेशमी रोएंवाली टोपी देखनेके लिए उठाई और उसपर उलटी तरफ हाथ फेरने लगा। टोपीके रोएं उठ खड़े हुए। यह डाक्टर मेहताने देखा । मुझे तुरंत रोक दिया, पर कुसूर तो हो चुका था। उनकी रोकका फल इतना ही हो पाया कि मैं समझ गया-- ग्रागे फिर ऐसी हरकत न होनी चाहिए। ___ यहांसे मैंने यूरोपियन रस्म-रिवाजका पहला पाठ पढ़ना शुरू किया। डाक्टर मेहता हंसते जाते और बहुतेरी बातें समझाते जाते। 'किसीकी चीजको यहां छूना न चाहिए। हिंदुस्तानमें परिचय होते ही जो बातें सहज पूछी जा सकती हैं, वे यहां न पूछनी चाहिए। बातें जोर-जोरसे न करनी चाहिए। हिंदुस्तान में साहबोंके साथ बातें करते हुए 'सर' कहने का जो रिवाज है वह यहां अनावश्यक
SR No.100001
Book TitleAtmakatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandas Karamchand Gandhi, Gandhiji
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1948
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationInterfaith & Interfaith
File Size70 MB
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