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________________ अध्याय १३ आखिर विलायतमें ४५ हैसियतसे अपना अनुभव भी सुनाते । कहते--"अंग्रेजी हमारी मातृ-भाषा नहीं, इसलिए बोलने में भूलें होना स्वाभाविक है। फिर भी बोलनेका रफ्त तो करना ही चाहिए, आदि।” परन्तु मेरे लिए अपना दब्बूपन छोड़ना भारी पड़ता था। मुझपर तरस खाकर एक भले अंग्रेजने मुझसे बातचीत करना शुरू कर दिया; वह मुझसे बड़े थे। मैं क्या खाता हूं, कौन हूँ, कहां जा रहा हूं, क्यों किसीके साथ बातचीत नहीं करता, इत्यादि सवाल पूछते । मुझे खानेके लिए मेजपर जानेकी प्रेरणा करते । मांस न खानेके मेरे आग्रहकी बात सुनकर एक रोज हंसे और मुझपर दया प्रदर्शित करते हुए बोले--- “ यहां तो (पोर्टसईद पहुंचेतक) सब ठीक-ठाक है, परंतु बिस्केके उपसागरमें पहुंचनेपर तुम्हें अपने विचार बदलने पड़ेंगे। इंग्लैंडमें तो इतना जाड़ा पड़ता है कि मांसके बिना काम चल ही नहीं सकता ।" मैंने कहा-- " मैंने तो सुना है कि वहां लोग बिना मांसाहार किये रह सकते हैं।" उन्होंने कहा-- “यह झूठ है। मेरी जान-पहचानवालोंमें कोई आदमी ऐसा नहीं है, जो मांस न खाता हो । मैं शराब पीने के लिए तुमसे नहीं कहता; पर मैं समझता हूं, मांस तो तुम्हें अवश्य खाना चाहिए।" मैंने कहा-- "आपकी सलाह के लिए मैं आपका आभारी हूं। पर मैंने अपनी माताजीको वचन दिया है कि मैं मांस न खाऊंगा। अतः मैं मांस नहीं खा सकता। यदि उसके विना न रह सकते हों तो मैं फिर हिंदुस्तानको लौट जाऊंगा, पर मांस हरगिज न खाऊंगा ।" बिस्केका उपसागर आया। वहां भी मुझे न तो मांसकी आवश्यकता मालूम हुई, न मदिराकी ही। घरपर मुझसे कहा गया था कि मांस न खाने के प्रमाणपत्र संग्रह करते रहना। सो मैंने इन अंग्रेज मित्रसे प्रमाणपत्र मांगा। उन्होंने खुशीसे दे दिया। बहुत समय तक मैंने उस धनकी तरह संभालकर रक्खा । पीछे जाकर मुझे पता चला कि प्रमाणपत्र तो मांस खाकर भी प्राप्त किये जा सकते हैं । तब उससे मेरा दिल हट गया । मैंने कहा---यदि मेरी बातपर किसीको विश्वास न हो तो ऐसे मामलोंमें प्रमाणपत्र दिखानेसे भी मुझे क्या लाभ हो सकता है ?
SR No.100001
Book TitleAtmakatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandas Karamchand Gandhi, Gandhiji
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1948
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationInterfaith & Interfaith
File Size70 MB
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