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________________ ४६ आहह्म-कथा : भाग १ मेरी पसंदगी डाक्टर मेहता सोमबारको विक्टोरिया होटलमें मुझसे मिलने गये। वहां उन्हें हमारे नये मकानका पता लगा। वह वहां आये। मेरी बेवकूफीमे जहाजमें गुझे दाद हो गई थी। जहाजमें खारे पानीसे नहाना पड़ता। उसमें साबुन घुलता नहीं। इधर मैं साबुनमे नहाने में सभ्यता समझता था। इसलिए गरीर साफ होने के बदले उलटा चिकटा हो गया और मुझे दाद पैदा हो गई। डाक्टरने तेजाब-सा एसिटिक-एसिड दिया, जिसने मुझे रुलाकर छोड़ा। डाक्टर मेहताने हमारे कमरे आदिको देखकर सिर हिलाया व कहा--- "यह मकान कामका नहीं। इस देश में आकर महज पुस्तकें पढ़ने की अपेक्षा यहांका अनुभव प्राप्त करना ज्यादा जरूरी है। इसके लिए किसी कुटुंब में रहने की जरूरत है। पर फिलहाल कुछ बातें सीखने के लिए . . . के यहां रहना ठीक होगा। मैं तुमको उनके यहां ले चलंगा ।" ___ मैंने सधन्यवाद उनकी बात मान ली। उन मित्रके यहां गया। उन्होंने मेरी खातिर-तवाजोमें किसी बातकी कसर न रक्खी। मुझे अपने सगे भाईकी तरह रक्खा, अंग्रेजी रस्म-रिवाज मिनाये । अंग्रेजीमें कुछ बातचीत करनेकी टेव भी उन्होंने मुझे डाली। . पर मेरे भोजनका सवाल बड़ा विकट हो पड़ा। बिना नमक, मिर्च, मसाले का साग भाता नहीं था। मालकिन नारी मेरे लिए पकाती भी क्या ? सुबह प्रोट-मीलकी एक किस्मकी लपसी बनती, उससे कुछ पेट भर जाता, पर दोपहरको और शामको हमेशा भूखा रहता। यह मित्र मांसाहार करने के लिएर रोज समझाते । पर मैं अपनी प्रतिज्ञाका नाम लेकर चुप हो रहता। उनकी दलीलोंका मुकाबला न कर सकता था। दोपहरको सिर्फ रोटी और चौलाईके साग तथा मुरब्बेपर गुजर करता। यही खाना शामको भी। मैं देखता था कि रोटीके तो दो ही तीन टुकड़े ले सकते हैं, अतः यादा मांगने हुए अंग लगती। फिर मेरा अाहार भी काफी था। जठराग्नि तेज थी, और काफी माहार भी
SR No.100001
Book TitleAtmakatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandas Karamchand Gandhi, Gandhiji
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1948
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationInterfaith & Interfaith
File Size70 MB
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