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________________ अध्याय 42 : असहयोगका प्रवाह ही असहयोग किया जाना चाहिए।" मोतीलालजी भी यह जोड़ना चाहते थे। मैंने तुरंत ही यह सुझाव मंजूर कर लिया और प्रस्तावमें स्वराज्यकी मांग भी जोड़ दी। लंबी, गंभीर और कुछ तेज बहसके बाद असहयोगका प्रस्ताव पास हो गया / सबसे पहले मोतीलालजी अांदोलनमें शामिल हुए। उस समय मेरे साथ उनकी जो मीठी बहस हुई थी, वह मुझे अबतक याद है / कहीं थोड़े शब्दोंको बदल देनेकी वात उन्होंने कही थी और मैंने वह मंजूर कर ली थी। देशवंधुको राजी कर लेनेका बीड़ा उन्होंने उठाया था। देशबंधुका दिन असहयोगकी तरफ था, लेकिन उनकी बुद्धि उनसे कह रही थी कि जनता असहयोगके भारको सह नहीं सकेगी। देशबंधु और लालाजी पूरे असहयोगी तो नागपुरमें बने थे। इस विशेष अधिवेशनके अवसरपर मुझे लोकमान्यकी अनुपस्थिति बहुत ज्यादा खटकी थी। आज भी मेरा यह मत है कि अगर वह जिंदा रहते तो अवश्य ही कलकत्तेके प्रसंगका स्वागत करते / लेकिन अगर यह नहीं होता और वह उसका विरोध करते, तो भी मुझे वह अच्छा लगता और मैं उससे बहुत-कुछ शिक्षा ग्रहण करता। मेरा उनके साथ हमेशा मतभेद रहा करता। लेकिन यह मतभेद मधुर होता था। उन्होंने मुझे सदा यह मानने दिया था कि हमारे बीच निकटका संबंध है। ये पंक्तियां लिखते हए उनके अवसानका चित्र मेरी अांखोंके सामने घूम रहा है। आधी रात के समय मेरे साथी पटवर्धनने टेलीफोन द्वारा मुझे उनकी मृत्युकी खबर दी थी। उसी समय मैंने अपने साथियोंसे कहा था-- "मेरी बड़ी ढाल मुझसे छिन गई !" इस समय असहयोगका आंदोलन पूरे जोरपर था। मुझे उनसे आश्वासन और प्रेरणा पानेकी आशा थी। आखिर जब असहयोग पूरी तरह मूर्तिमान हुआ था तब उनका क्या रुख होता सो तो दैव ही जाने; लेकिन इतना मुझे मालूम है कि देशके इतिहासकी इस नाजुक घड़ीमें उनका न होना सवको खटकता था /
SR No.100001
Book TitleAtmakatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandas Karamchand Gandhi, Gandhiji
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1948
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationInterfaith & Interfaith
File Size70 MB
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