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________________ आत्म-कथा : भाग १ बहुत खराब है, यह तो मैं जानता ही था, इसलिए 'बहुत खराव'का विशेष अर्थ समझ गया। एक-बारगी बिछौनेसे हटकर पूछा----- " कहो तो, बात क्या है ?" "पिताजी गुजर गये ! "---उत्तर मिला। अन पश्चात्ताप किस कामका ? मैं बहुत शर्मिन्दा हुआ, बड़ा खेद हुआ। पिताजीके कमरेमें दौड़ा गया । मैं समझा कि यदि मैं विषयांध न होता, तो अंत समयका यह वियोग मेरे भाग्यमें न होता, मैं अंतिम घड़ियोंतक पिताजीके पैर दबाता रहता। अब तो चाचाजीके मुंहसे ही सुना, "बापू' तो हमें छोड़कर चले गये ! " अपने जेठे भाईके परम भक्त चाचाजी उनकी अंतिम सेवाके सौभाग्यके भागी हुए। पिताजीको अपने अवसानका खयाल पहलेसे हो चुका था। उन्होंने इशारेसे लिखनेकी सामग्री मांगी। कागजपर उन्होंने लिखा, " तैयारी करो।" इतना लिखकर अपने हाथपर बंधा ताबीज तोड़ फेंका। सोनेकी कंठी पहने हुए थे, उसे भी तोड़ फेंका और एक क्षण में प्राण-पखेरू उड़ गए। पिछले प्रकरणमें मैंने अपनी जिस शर्मकी ओर संकेत किया था, वह यही शर्म थी। सेवाके समयमें भी विषयेच्छा ! इस काले धब्बेको मैं आजतक न पोंछ सका, न भूल सका। और मैंने हमेशा माना है कि यद्यपि माता-पिता के प्रति मेरी भक्ति अपार थी, उनके लिए मैं सब-कुछ छोड़ सकता था, परंतु उस सेवाके समयमें भी मेरा मन विषयभोगको न छोड़ सका, यह उस सेवामें अक्षम्य कमी थी। इसीलिए मैंने अपनेको एक-पत्नी-बतका पालन करनेवाला मानते हुए भी विषयांध माना है । इससे छूटने में मुझे बहुत समय लगा है और छूटनेके पहलेतक बड़े धर्म-संकट सहने पड़े हैं। ___अपनी इस दुहेरी शर्मका प्रकरण पूरा करनेके पहले यह भी कह देना है कि पत्नीने जिस बालकको जन्म दिया वह दो या चार दिन ही सांस लेकर चलता हुआ। दूसरा क्या परिणाम हो सकता था ? इस उदाहरणको देखकर जो मां-बाप अथवा दंपती चेतना चाहे वे चेतें । 'काठियावाड़में पिताको बापू कहते हैं।-अनु०
SR No.100001
Book TitleAtmakatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandas Karamchand Gandhi, Gandhiji
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1948
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationInterfaith & Interfaith
File Size70 MB
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