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अध्याय ६ : पिताजीकी मृत्यु और मेरी शर्म
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ढलती उम्र में ऐसा नश्तर लगवानेकी सलाह उन्होंने न दी । दवात्रोंकी बीसों बोतलें खपीं, पर व्यर्थ गई और नश्तर भी नहीं लगाया गया । वैद्यराज थे तो काबिल और नामांकित; पर मेरा खयाल है कि यदि उन्होंने नश्तर लगाने दिया होता तो घावके अच्छा होने में कोई दिक्कत न आती । आपरेशन बंबई के तत्कालीन प्रसिद्ध सर्जनके द्वारा होनेवाला था । पर अंत नजदीक या गया था, इसलिए ठीक बात उस समय कैसे सूझ सकती थी ? पिताजी बंबईसे बिना नश्तर लगाये वापस लौटे और नश्तर-संबंधी खरीदा हुआ सामान उनके साथ आया । अब उन्होंने अधिक जीनेकी आशा छोड़ दी थी । कमजोरी बढ़ती गई और हर क्रिया बिछौने में ही करने की नौबत आ गई । परंतु उन्होंने अंततक उसे स्वीकार न किया और उठने-बैठने का कष्ट उठाना मंजूर किया । वैष्णव धर्मका यह कठिन शासन है । उसमें बाह्य शुद्धि प्रति आवश्यक है । परंतु पाश्चात्य वैद्यक शास्त्र हमें सिखाता है कि मल त्याग तथा स्नान प्रादिकी समस्त क्रियायें पूरी-पूरी स्वच्छता के साथ बिछौने में हो सकती हैं और फिर भी रोगी को कष्ट नहीं उठाना पड़ता । जब देखिए तब बिछौना स्वच्छ ही रहता है । ऐसी स्वच्छताको मैं तो वैष्णव-धर्म के अनुकूल ही मानता हूं । परंतु इस समय पिताजी का स्नानादिके लिए बिछौनेको छोड़ने का आग्रह देखकर मैं तो प्राश्चर्य चकित रहता और मनमें उनकी स्तुति किया करता ।
अवसानकी घोर रात्रि नजदीक आई । इस समय मेरे चाचाजी राजकोट में थे । मुझे कुछ ऐसा याद पड़ता है कि पिताजीकी बीमारी बढ़नेका समाचार सुनकर वह आ गये थे। दोनों भाइयोंमें प्रगाढ़ प्रेम भाव था । चाचाजी दिनभर पिताजीके बिछौनेके पास ही बैठे रहते और हम सबको सोनेके लिए रवाना करके खुद पिताजीके बिछौने के पास सोते । किसीको यह खयालतक न था कि यह रात आखिरी साबित होगी । भय तो सदा रहा ही करता था । रातके साढ़े दस या ग्यारह बजे होंगे। मैं पैर दबा रहा था । चाचाजीने मुझसे कहा
"
'अब तुम जाकर सोश्रो, मैं बैठूंगा ।" मैं खुश हुआ और सीधा शयन -गृहमें चला गया । पत्नी बेचारी भर नींद में थी । पर मैं उसे क्यों सोने देने लगा ? जगाया । पांच-सात ही मिनिट हुए होंगे कि नौकरने दरवाजा खटकाया ।
मैं चौका ! उसने कहा
--" उठो, पिताजीकी हालत बहुत खराब है।