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आत्म-कथा : भाग १
सिगरेट चुराकर पीनेकी, नौकरके पैसे चुरानेकी और उसकी बीड़ी लाकर पीनेकी टेव छुट गई। बड़ा होनेपर भी मुझे कभी बीड़ी पीनेकी इच्छातक न हुई । और मैंने सदा इस टेबको जंगली, हानिकारक और गंदी माना है । पर अबतक में यह नहीं समझ पाया कि बीड़ी-सिगरेट पीनेका इतना जबर्दस्त शौक दुनियाको आखिर क्यों है ? रेलके जिस डिब्बेमें बहुतेरी बीड़ियां फूंकी जाती हों, वहां बैठना मेरे लिए मुश्किल हो पड़ता है और उसके धुएंसे मेरा दम घुटने लगता है । सिगरेटके टुकड़े चुराने तथा उसके लिए नौकरके पैसे चुरानेसे बढ़कर चोरीका एक दोष मुझसे हुआ है, और उसे मैं इससे ज्यादा गंभीर समझता हूं । बीड़ीका चस्का तब लगा जब मेरी उम्र १२-१३ सालकी होगी । शायद इससे भी कम हो । दूसरी चोरीके समय १५ वर्षकी रही होगी । यह चोरी थी मेरे मांसाहारी भाईके सोनेके कड़ेके टुकड़ेकी । उन्होंने २५ ) के लगभग कर्जा कर रक्खा था । हम दोनों भाई इस सोच में पड़े कि यह चुकावें किस तरह । मेरे भाईके हाथमें सोनेका एक ठोस कड़ा था। उसमेंसे एक तोला सोना काटना कठिन न था ।
कड़ा कटा । कर्ज चुका, पर मेरे लिए यह घटना असह्य हो गई । आगेसे कदापि चोरी न करने का मैंने निश्चय किया । मनमें आया कि पिताजीके सामने जाकर चोरी कबूल करलं । पर उनके सामने मुंह खुलना मुश्किल था । यह डर तो न था कि पिताजी खुद मुझे पीटने लगेंगे, क्योंकि मुझे नहीं याद पड़ता कि उन्होंने हम भाइयों से कभी किसीको पीटा हो । पर यह खटका जरूर था कि वह खुद बड़ा संताप करेंगे, शायद अपना सिर भी पीट । तथापि मैंने मनमें कहा-
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'यह जोखिम उठाकर भी अपनी बुराई कबूल कर लेनी चाहिए, इसके बिना शुद्धि नहीं हो सकती ।
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में यह निश्चय किया कि चिट्ठी लिखकर अपना दोष स्वीकार कर लूं । मैंने चिट्ठी लिखकर खुद ही उन्हें दी । चिट्ठीमें सारा दोष कबूल किया था और उसके लिए सजा चाही थी । ग्राजिजीके साथ यह प्रार्थना की थी कि ग्राप किसी तरह अपनेको दुःखी न बनावें और प्रतिज्ञा की थी कि आगे मैं कभी ऐसा न करूंगा |
पिताजीको चिट्ठी देते हुए मेरे हाथ कांप रहे थे । उस समय वह भगंदरकी बीमारी से पीड़ित थे । ग्रतः खटियाके बजाय लकड़ी के तख्तोंपर उनका बिछौना