SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 47
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्याय ६ : 'चोरी और प्रायश्चित्त २६ रहता था। उनके सामने जाकर बैठ गया । ___ उन्होंने चिट्ठी पढ़ी। आंखोंसे मोतीके बूंद टपकने लगे। चिट्ठी भीग गई। थोड़ी देरके लिए उन्होंने अांखें मंद लीं। चिट्ठी फाड़ डाली। चिट्ठी पढ़नेको जो वह उठ बैठे थे सो फिर लेट गये । ___मैं भी रोया। पिताजीके दुःखको अनुभव किया। यदि मैं चितेरा होता तो आज भी उस चित्रको हूबहू खींच सकता। मेरी आंखोंके सामने अाज भी वह दृश्य ज्यों-का-त्यों दिखाई दे रहा है ।। इस मोती-बिंदुके प्रेमबाणने मुझे बींध डाला । मैं शुद्ध हो गया। इस प्रेमको तो वही जान सकता है, जिसे उसका अनुभव हुअा है-- रामबाण वाग्यारे होय ते जाणे' मेरे लिए यह अहिंसाका पदार्थ-पाठ था। उस समय तो मुझे इसमें पितृ-वात्सल्यसे अधिक कुछ न दिखाई दिया, पर आज मैं इसे शुद्ध अहिंसाके नामसे पहचान सका हूं। ऐसी अहिंसा जब व्यापक रूप ग्रहण करती है तब उसके स्पर्शसे कौन अलिप्त रह सकता है ? ऐसी व्यापक अहिंसाके बलको नापना असंभव है। ऐसी शांतिमय क्षमा पिताजीके स्वभावके प्रतिकूल थी। मैंने तो यह अंदाज किया था कि वह गुस्सा होंगे, सख्त-सुस्त कहेंगे शायद अपना सिर भी पीट लें। पर उन्होंने तो असीम शांतिका परिचय दिया। मैं मानता हूं कि यह अपने दोषको शुद्ध हृदयसे मंजूर कर लेने का परिणाम था। जो मनुष्य अधिकारी व्यक्तिके सामने स्वेच्छापूर्वक अपने दोष शुद्ध हृदयसे कह देता है और फिर कभी न करने की प्रतिज्ञा करता है, वह मानो शुद्धतम प्रायश्चित करता है। मैं जानता हूं कि मेरी इस दोष-स्वीकृतिसे पिताजी मेरे संबंध निःशंक हो गये और उनका महाप्रेम मेरे प्रति और भी बढ़ गया । 'प्रेम-बाणसे जो बिधा हो वही उसके प्रभावको जानता है ।-अनु०
SR No.100001
Book TitleAtmakatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandas Karamchand Gandhi, Gandhiji
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1948
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationInterfaith & Interfaith
File Size70 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy