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________________ ३३२ आत्म-कथा ! भाग ४ थे। अंतको कस्तूरबाईने यह कहकर इस बहसको बंद कर दिया--- ___ "स्वामीजी, आप कुछ भी कहिए, मैं मांसका शोरबा खाकर चंगी होना नहीं चाहती । अब बड़ी दया होगी, अगर आप मेरा सिर न खपावें। मैंने तो अपना निश्चय आपसे कह दिया। अब और बातें रह गई हों तो आप इन लड़कोंके बापसे जाकर कीजिएगा ।" २६ घरमें सत्याग्रह (१९०८में मुझे पहली बार जेलका अनुभव हुआ। उस समय मुझे यह बात मालूम हुई कि जेलमें जो कितने ही नियम कैदियोंसे पालन कराये जाते हैं, वे एक संयमीको अथवा ब्रह्मचारीको स्वेच्छा-पूर्वक पालन करना चाहिए।' जैसे कि कैदियोंको सूर्यास्तके पहले पांच बजेतक भोजन कर लेना चाहिए। उन्हेंफिर वे हब्शी हों या हिंदुस्तानी-- चाय या काफी न दी जाय, नमक खाना हो तो अलहदा लें, स्वादके लिए कोई चीज न खिलाई जाय । जब मैंने जेलके डाक्टरसे हिंदुस्तानी कैदियोंके लिए 'करी पाउडर' मांगा और नमक रसोई पकाते वक्त ही डालनेके लिए कहा तब उन्होंने जवाब दिया कि "आप लोग यहां स्वादिष्ट चीजें खानेके लिए नहीं आये हैं। आरोग्यके लिए 'करी पाउडर'की बिलकुल जरूरत नहीं। आरोग्यके लिए नमक चाहे ऊपरसे लिया जाय, चाहे पकाते वक्त डाल दिया जाय, एक ही बात है ।' __खैर, वहां तो बड़ी मुश्किलसे हम लोग भोजनमें आवश्यक परिवर्तन करा पाये थे, परंतु संयमकी दृष्टिसे जब उनपर विचार करते हैं तो मालूम होता कि ये दोनों प्रतिबंध अच्छे ही थे। किसीकी जबरदस्तीसे नियमोंका पालन करनेसे उसका फल नहीं मिलता। परंतु स्वेच्छासे ऐसे प्रतिबंधका पालन 'ये अनुभव हिन्दीमें 'मेरे जेलके अनुभव' के नामसे प्रताप-प्रेस, कानपुर, से पुस्तकाकार प्रकाशित हो चुके हैं। १९१६-१७ में मैंने इनका अनुवाद प्रताप-प्रेसके लिए किया था ।-अनुवादक
SR No.100001
Book TitleAtmakatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandas Karamchand Gandhi, Gandhiji
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1948
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationInterfaith & Interfaith
File Size70 MB
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