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________________ २५८ ree-bar: भाग ४ अपने आप मिल जाता था । पर अब जबकि यहां एशिया के कर्मचारियोंका दौर - दौरा हुआ तब तो यहांके जैसी 'जो हुक्मी' श्रौर खटपट वगैरा बुराइयां भी उसमें या घुसीं । दक्षिण अफ्रीका में एक प्रकारकी प्रजासत्ता थी; पर अब तो एशिया मे सोलहों श्राने नवाबयाही आ गई; क्योंकि एशियामें तो प्रजासत्ता थी नहीं; वल्कि उल्टे सत्ता प्रजापर ही चलाई जाती थी । इसके विपरीत दक्षिण कीका गोरे घर बनाकर बस गये थे, इसलिए वे वहांके प्रजाजन हो गये थे और इसलिए राज-कर्मचारियोंपर उनका अंकुश रहता था, पर अब इसमें था मिले थे एशिया के निरंकुश राज- कर्मचारी, जिन्होंने बेचारे हिंदुस्तानी लोगोंकी हालत सरौतेंमें सुपारीकी तरह करदी थी । मुझे भी इस सत्ताका खासा अनुभव हो गया। पहले तो मैं इस महकमेके बड़े अफसर के पास तलब किया गया । यह साहब लंका से श्राये थे । 'तलब किया गया' मेरे इन शब्दोंमें कहीं अत्युक्तिका ग्राभास न हो; इसलिए अपना ग्राशय जरा ज्यादा स्पष्ट कर देता हूं। मैं चिट्ठी लिखकर नहीं बुलाया गया था। मुझे बांके प्रमुख हिंदुस्तानियों के यहां तो निरंतर जाना ही पड़ता था । स्वर्गीय सेठ तैयब हाजी खानमोहम्मद भी ऐसे गुप्राोंमेंसे थे । उनसे इन साहबने पूछा -- "यह गांधी कौन है ? यहां किसलिए प्रथा है ? " तैयब सेठने जवाब दिया, " वह हमारे सलाहकार हैं और हमारे बुलानेपर यहां आये हैं । "" 66 'तो फिर हम सब यहां किस कामके लिए हैं ? क्या हमारी जरूरत यहां आपकी रक्षा के लिए नहीं हुई है ? गांधी यहांका हाल क्या जाने ?" साहब ने कहा । तैयव सेठने जैसे-तैसे करके इस प्रहारका भी जवाब दिया--"हां, आप तो हैं ही; पर गांधीजी तो हमारे ही अपने ठहरे न ? वे हमारी भाषा जानते हैं, हमारे भावोंको, हमारे पहलूको समझते हैं । और ग्राप लोग श्राखिर हैं तो राज - कर्मचारी ही न ?” इसपर साहबने हुक्म फरमाया-- “गांधीको मेरे पास ले माना ।" तैयब सेठ वगैराके साथ में साहवसे मिलने गया । वहां हम लोगोंको कुर्सी तो भला मिल ही कैसे सकती थी ? सबको खड़े-खड़े ही बातें करनी पड़ीं ।
SR No.100001
Book TitleAtmakatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandas Karamchand Gandhi, Gandhiji
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1948
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationInterfaith & Interfaith
File Size70 MB
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