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________________ अध्याय २२ : धर्म-संकट २४९ मिलाकर दिया जा सकता है; पर उससे पूरा पोषण नहीं मिल सकता । तुम जानते हो कि में तो बहुत-से हिंदू-परिवारोंमें जाया करता हूं; पर दवाके लिए तो हम जो चाहते हैं वही चीज उन्हें देते हैं और वे उसे लेते भी हैं। मैं समझता हूँ कि तुम भी अपने लड़केके साथ ऐसी सख्ती न करो तो अच्छा होगा।" “श्राप जो कहते हैं वह तो ठीक है, और आपको ऐसा कहना ही चाहिए; पर मेरी जिम्मेदारी बहुत बड़ी है । यदि लड़का बड़ा होता तो जरूर उसकी इच्छा जानने का प्रयत्न भी करता और जो वह चाहता वही उसे करने देता ; पर यहां तो इसके लिए मुझे ही विचार करना पड़ रहा है। मैं तो समझता हूं कि मनुष्य के धर्म की कसौटी ऐसे ही समय होती है । चाहे ठीक हो चाहे गलत, मैंने तो इसको धर्म माना है कि मनुष्यको मांसादि न खाना चाहिए। जीवनके साधनोंकी भी सीमा होती है। जीने के लिए भी अमुक वस्तुओंको हमें नहीं ग्रहण करना चाहिए। मेरे धर्मकी मर्यादा मुझे और मेरे लोगोंको भी ऐसे समयपर मांस इत्यादिका उपयोग करने से रोकती है । इसलिए आप जिस खतरेको देखते हैं मुझे उसे उठाना होगा। पर अापसे मैं एक बात चाहता हूं। आपका इलाज तो मैं नहीं करूंगा; पर मुझे इस बालककी नाड़ी और हृदयको देखना नहीं आता है। जल-चिकित्साकी मुझे थोड़ी जानकारी है। उन उपचारोंको मैं करना चाहता हूं; परंतु अगर आप समय-समयपर मणिलालकी तबियत देखनेको आते रहें और उसके शरीरमें होने वाले फेरफारोंसे मुझे परिचित करते रहेंगे तो मैं आपका उपकार मानूंगा ।” ___सज्जन डाक्टर मेरी कठिनाइयों को समझ गये और मेरी इच्छानुसार उन्होंने मणिलालको देखने के लिए आना मंजूर कर लिया । यद्यपि मणिलाल अपनी राय कायम करने लायक नहीं था तो भी डाक्टरके साथ जो मेरी बातचीत हुई थी वह मैंने उसे सुनाई और अपने विचार प्रकट करनेको कहा । "आप खुशी के साथ जल-चिकित्सा कीजिए। मैं शोरवा नहीं पीऊंगा, और न अंडे ही खाऊंगा।" उसके इन वाक्योंसे में प्रसन्न हुया; यद्यपि मैं जानता था कि अगर मैं उसे दोनों चीजें खानेको कहता तो वह खा भी लेता । . मैं कूने के उपचारोंको जानता था, उनका उपयोग भी किया था। बीमारीमें
SR No.100001
Book TitleAtmakatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandas Karamchand Gandhi, Gandhiji
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1948
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationInterfaith & Interfaith
File Size70 MB
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