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________________ आत्म-कथा : भाग ३ " पर वहां मेरी पूछ ही ज्यादा न होगी; क्या आप मेरा वहांका खर्च चलायेंगे?'' मैंने कहा । "हां, हां, मैं तुम्हारा खर्च चलाऊंगा, तुम्हें बड़े-बड़े बैरिस्टरोंकी तरह किसी वक्त यहां लाऊंगा और लिखने-लिखानेका काम तो तुम्हारे लिए वहीं भेज दिया करूंगा। बैरिस्टरोंको बड़े-छोटे बनानेका काम तो हम वकीलोंका है न ? तुमने जामनगर और वेरावल में जैसा काम किया है, उससे तुम्हारी नाप हो गई है और मैं बेफिकर हो गया हूं। तुम जो लोक-सेवा करने के लिए पैदा हुए हो, उसे यहां काठियावाड़में दफन नहीं होने देंगे। बोलो, कब जा रहे हो ? " ___“ नेटालसे मेरे कुछ रुपये आने बाकी हैं, उनके आनेपर जाऊंगा।" दो-एक सप्ताहमें रुपये आ गये और मैं बंबई चला गया। वहां मैंने पेन गिल्बर्ट और सयानीके आफिसमें 'चेंबर्स' किरायेपर लिये और ऐसा लगा मानो वहां स्थिर हो गया । धर्म-संकट आफिसके अलावा मैंने गिरगांवमें घर भी लिया, परंतु ईश्वरने मुझे स्थिर नहीं रहने दिया। घर लिये बहुत दिन नहीं हुए थे कि मेरा दूसरा लड़का सख्त बीमार हो गया। काल-ज्वरने उसे घेर लिया था। बुखार उतरता नहीं था। घबराहट तो थी ही; पर रातको सन्निपातके लक्षण भी दिखाई देने लगे। इस व्याधिसे पहले, बचपन में, उसे चेचक भी जोरकी निकल चुकी थी। डाक्टरकी सलाह ली। डाक्टरने कहा--" इसके लिए दवाका उपयोग नहीं हो सकता । अब तो इसे अंडे और मुर्गीका शोरवा देने की जरूरत है।" मणिलालकी उम्न दस सालकी थी, अत: उससे तो क्या पूछना था ! में उसका पालक था, अत: मुझे ही निर्णय करना था। डाक्टर एक भले पारसी थे। मैंने कहा--- " डक्टर, हम तो सब अन्नाहारी हैं। मेरा विचार तो लड़केको इन दोनोंमेंसे एक भी वस्तु देनेका नहीं है। दूसरी ही कोई वस्तु न बतलायेंगे ?" डाक्टर बोले-- “तुम्हारे लड़केकी जान खतरेमें है। दूध और पानी
SR No.100001
Book TitleAtmakatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandas Karamchand Gandhi, Gandhiji
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1948
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationInterfaith & Interfaith
File Size70 MB
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