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________________ आत्म-कथा : भाग ३ उपवासका स्थान बड़ा है, यह मैं जानता था । कुनेकी पद्धतिके अनुसार मैंने मणिलालको कटि-स्नान कराना शुरू किया। तीन मिनटसे ज्यादा उसे टबमें नहीं रखता। तीन दिन तो सिर्फ नारंगीके रसमें पानी मिलाकर देता रहा और उसीपर रक्खा । बुखार दूर नहीं होता था और रातको वह कुछ-कुछ बड़बड़ाता था। बुखार १०४ डिग्री तक हो जाता था। मैं घबराया। यदि बालकको खो बैठा तो जगत्में लोग मुझे क्या कहेंगे? बड़े भाई क्या कहेंगे? दूसरे डाक्टरोंको क्यों न बुला लूं ? किसी वैद्यको क्यों न बुलाऊं ? मां-बापको अपनी अधूरी अकल आजमानेका क्या हक है ? ऐसे विचार उठते । पर ये विचार भी उठते--" जीव ! जो तू अपने लिए करता है, वही यदि लड़के के लिए भी करे तो इससे परमेश्वर संतोष मानेंगे । तुझे जल-चिकित्सापर श्रद्धा है, दवापर नहीं। डाक्टर जीवन-दान तो देते नहीं । उनके भी तो आखिरमें प्रयोग ही हैं न । जीवनकी डोरी तो एकमात्र ईश्वरके ही हाथ में है । ईश्वरका नाम ले और उसपर श्रद्धा रख और अपने मार्गको न छोड़।" मनमें इस तरह उथल-पुथल मचती रही। रात हुई। मैं मणिलाल को अपने पास लेकर सोया हुआ था। मैंने निश्चय किया कि उसे भीगी चादरकी पट्टीमें रक्खा जाय । मैं उठा, कपड़ा लिया, ठंडे पानी में उसे डुबोया और निचोड़कर उसमें पैरसे लेकर सिर तक उसे लपेट दिया और ऊपरसे दो कम्बल प्रोड़ा दिये; सिरपर भीगा हुआ तौलिया भी रख दिया। शरीर तवेकी तरह तप रहा था, व बिलकुल सूखा था, पसीना तो आता ही न था । ___ मैं खूब थक गया था। मणिलालको उसकी मांको सौंपकर मैं आध घंटेके लिए खुली हवामें ताजगी और शांति प्राप्त करनेके इरादेसे चौपाटीकी तरफ गया। रातके दस वजे होंगे। मनुष्योंकी ग्रामद-रफ्त कम हो गई थी; पर मुझे इसका खयाल न था ! विचार-सागरमें गोते लगा रहा था--" हे ईश्वर ! इस धर्म-संकटमें तू मेरी लाज रखना।" मुंहसे 'राम-राम'का रटन तो चल ही रहा था। कुछ देरके बाद मैं वापस लौटा । मेरा कलेजा धड़क रहा था। घरमें घुसते ही मणिलालने आवाज दी-“बापू ! आगये ?" .. "हां, भाई ।"
SR No.100001
Book TitleAtmakatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandas Karamchand Gandhi, Gandhiji
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1948
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationInterfaith & Interfaith
File Size70 MB
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