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________________ २२० आत्म-कथा : भाग ३ और उसका पालन करना बाकी था। भारतवर्ष तो कंगाल है । लोग धन कमाने के लिए विदेश जाते हैं। मैंने सोचा, उनकी कमाईका कुछ न कुछ अंश भारतवर्षको प्रापत्ति के समय मिलना चाहिए । भारतमें १८९७ई० में तो अकाल पड़ा ही था । १८९९में एक और भारी अकाल हुआ। दोनों अकालके समय दक्षिण अफ्रीका से खासी मदद गई थी । पहले अकालके समय जितनी रकम एकत्र हो सकी थी उससे बहुत ज्यादा रकम दूसरे अकालके समय गई थी। इसमें हमने अंग्रेजोंसे भी चंदा मांगा था और उनकी तरफसे अच्छी सहायता मिली थी । गिरमिटिया हिंदुस्तानियोंने भी अपनी तरफसे चंदा दिया था । इस तरह इन दोनों अकाल के समय जो प्रथा पड़ी वह अभीतक कायम है और हम देखते हैं कि भारतवर्ष में सार्वजनिक संकटके समय दक्षिण अफ्रीका के हिंदुस्तानी अच्छी रकम भेजा करते हैं । इस तरह दक्षिण अफ्रीका के भारतीयोंकी सेवा करते हुए मैं खुद बहुतेरी बातें एक के बाद एक अनायास सीख रहा था । सत्य एक विशाल वृक्ष है । उसकी ज्यों-ज्यों सेवा की जाती है त्यों-त्यों उसमें अनेक फल प्राते हुए दिखाई देते हैं । उनका अंत ही नहीं होता । ज्यों-ज्यों हम गहरे पैठते हैं त्यों-त्यों उसमेंसे रत्न निकलते हैं; सेवाके अवसर हाथ आते ही रहते हैं । १२ देश-गमन लड़ाई कामसे मुक्त होनेके बाद मैंने सोचा कि ग्रव मेरा काम दक्षिण अफ्रीका में नहीं, बल्कि देसमें है । दक्षिण अफ्रीका में बैठे-बैठे में कुछ-न-कुछ सेवा तो जरूर कर पाता था, परंतु मैंने देखा कि यहां कहीं मेरा मुख्य काम धन कमाना ही न हो जाय । देस से मित्र लोग भी देस लौट आनेके लिये आकर्षित कर रहे थे । मुझे भी जंचा कि देस जानेसे मेरा अधिक उपयोग हो सकेगा । नेटालमें मि० खान और मनसुखलाल नाजर थे ही । मैंने साथियोंसे छुट्टी देनेका अनुरोध किया। बड़ी मुश्किलसे उन्होंने
SR No.100001
Book TitleAtmakatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandas Karamchand Gandhi, Gandhiji
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1948
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationInterfaith & Interfaith
File Size70 MB
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