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________________ अध्याय १२ : देश-गमन २२१ एक शर्तपर छुट्टी स्वीकार की । वह यह कि एक सालके अंदर लोगोंको मेरी जरूरत मालूम हो तो मैं फिर दक्षिण अफ्रीका प्राजाऊंगा। मालूम हुई, परंतु मैं तो प्रेम-पाशमें बंधा हुआ था । मुझे यह शर्त कठिन काचे रे तांतणे मने हरजीए बांधी जेम ताणे तेम तेमनी रे मने लागी कटारी प्रेमनी । ' मीराबाईकी यह उपमा न्यूनाधिक अंशमें मुझपर घटित होती थी । पंच भी परमेश्वर ही हैं। मित्रोंकी बातको टाल नहीं सकता था । मैंने वचन दिया । इजाजत मिली | इस समय मेरा निकट संबंध प्रायः नेटालके ही साथ था । नेटालके हिंदुस्तानियोंने मुझे प्रेमामृत से नहला डाला । स्थान-स्थानपर अभिनंदनपत्र दिये गये और हर जगहसे कीमती चीजें नजर की गईं । १८९६ में जब मैं देस आया था, तब भी भेंटें मिली थीं; पर इस बारकी भेंटों और सभाओंोंके दृश्योंसे मैं घबराया । भेंटमें सोने-चांदीकी चीजें तो थीं ही ; पर हीरेकी चीजें भी थीं । इन सब चीजोंको स्वीकार करनेका मुझे क्या अधिकार हो सकता है ? यदि मैं इन्हें मंजूर कर लूं तो फिर अपने मनको यह कहकर कैसे मना सकता हूं कि मैं पैसा लेकर लोगों की सेवा नहीं करता था ? मेरे मवक्किलोंकी कुछ रकमोंको छोड़कर बाकी सब चीजें मेरी लोक-सेवाके ही उपलक्ष्यमें दी गई थीं । पर मेरे मनमें तो मवक्किल और दूसरे साथियोंमें कुछ भेद न था । मुख्य-मुख्य मवक्किल सार्वजनिक काममें भी सहायता देते थे । फिर उन भेंटोंमें एक पचास गिनीका हार कस्तूरवाईके लिए था । मगर उसे जो चीज मिली वह भी थी तो मेरी ही सेवाके उपलक्ष्य में; अतएवं उसे पृथक् नहीं मान सकते थे । जिस शामको इनमें से मुख्य-मुख्य भेंटें मिलीं, वह रात मैंने एक पागलकी "प्रभुजीने मुझे कच्चे सूतके प्रेम-धागे से बांध लिया है । ज्यों-ज्यों वह उसे तानते हैं त्यों-त्यों मैं उनकी होती जाती हूं ।
SR No.100001
Book TitleAtmakatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandas Karamchand Gandhi, Gandhiji
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1948
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationInterfaith & Interfaith
File Size70 MB
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