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________________ १६० आत्म-कथा : भाग ३ वापस लौटानेकी तजवीज थी। एजेंटको तो धमकी दी ही गई थी। अब हमें भी धमकियां दी जाने लगीं-- यदि तुम लोग वापस न लौटोगे तो समुद्र में डुबो दिये जानोगे। यदि लौट जानोगे तो शायद लौटनेका किराया भी मिल जायगा। मैं मुसाफिरोंमें खूब घूमा-फिरा और उन्हें धीरज-दिलासा देता रहा । 'नादरी' के यात्रियोंको भी धीरजके संदेश भेजे । मुसाफिर शांत रहे और उन्होंने हिम्मत दिखाई। मुसाफिरोंके मनोविनोदके लिए जहाजमें तरह-तरहके खेलोंकी व्यवस्था थी। क्रिसमसके दिन आये। कप्तानने उन दिनों पहले दरजेके मुसाफिरोंको भोज दिया। यात्रियोंमें मुख्यत: तो मैं और मेरे बाल-बच्चे ही थे। भोजनके बाद भाषण हुआ करते हैं । मैंने पश्चिमी सुधारोंपर व्याख्यान दिया। मैं जानता था कि यह अवसर गंभीर भाषणके अनुकूल नहीं है; पर मैं दूसरी तरहका भाषण कर ही नहीं सकता था। विनोद और आमोद-प्रमोदकी बातोंमें मैं शरीक तो होता था; पर मेरा दिल तो डरबनमें छिड़े संग्रामकी ओर लग रहा था । _ क्योंकि इस हमलेका मध्यबिंदु में ही था, मुझपर दो इलजाम थे-- (१) हिंदुस्तानमें मैंने नेटालके गोरोंकी अनुचित निंदा की है। और (२) मैं नेटालको हिंदुस्तानियोंसे भर देना चाहता हूं और इसलिए 'कुरलैंड' और 'नादरी 'में खासतौरपर नेटालमें बसाने के लिए हिंदुस्तानियोंको भर लाया हूं। मुझे अपनी जिम्मेदारीका खयाल था। मेरे कारणं दादा अब्दुल्लाने बड़ी जोखिम सिरपर ले ली थी। मुसाफिरोंकी भी जान जोखिममें थी; मैंने अपने बाल-बच्चोंको साथ लाकर उन्हें भी दुःखमें डाल दिया था। फिर भी मैं था सब तरह निर्दोष । मैंने किसीको नेटाल जानेके लिए ललचाया न था। 'नादरी'के यात्रियोंको तो मैं जानतातक न था। 'कुरलैंड में अपने दो-तीन रिश्तेदारोंके अलावा और जो सैकड़ों मुसाफिर थे, उनके तो नाम ठामतक न जानता था। मैंने हिंदुस्तानमें नेटालके अंग्रेजोंके संबंधमें ऐसा एक भी अक्षर न कहा था, जो नेटालमें न कह चुका था; और जो मैंने कहा था उसके लिए मेरे पास बहुतेरे सबूत थे । इस कारण उस संस्कृतिके प्रति, जिसकी उपज नेटालके गोरे थे, जिसके
SR No.100001
Book TitleAtmakatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandas Karamchand Gandhi, Gandhiji
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1948
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationInterfaith & Interfaith
File Size70 MB
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