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अध्याय २ : तूफान
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इसके मुताबिक हमारे जहाजपर भी पीला झंडा लहरा रहा था। डाक्टर आये। जांच करके पांच दिनके सूतकका हुक्म दिया; क्योंकि उनकी यह धारणा थी कि प्लेगके जंतु तेईस दिनतक कायम रहते हैं । इसलिए उन्होंने यह तय किया कि बंबई छोड़नेके बाद तेईस दिनतक जहाजोंको सूतकमें रखना चाहिए।
परंतु इस सूतक के हुक्मका हेतु केवल यारोग्य न था । डरबनके गोरे हमें वापस लौटा देनेकी हलचल मचा रहे थे । इस हुक्म में यह बात भी कारणीभूत थी ।
दादा अब्दुल्लाकी प्रोरसे हमें शहरकी इस हलचलकी खबरें मिला करती थीं । गोरे एकके बाद एक विराट् सभायें कर रहे थे । दादा अब्दुल्लाको धमकियां भेज रहे थे । उन्हें लालच भी देते थे । यदि दादा अब्दुल्ला दोनों जहाजोंको वापस लौटा दें तो उन्हें सारा हरजाना देने को तैयार थे। पर दादा अब्दुल्ला किसीकी धमकियोंसे डरनेवाले न थे । इस समय वहां सेठ अब्दुल करीम हाजी आदम दूकानपर थे । उन्होंने प्रतिज्ञा कर रखी थी कि चाहें कितना ही नुकसान हो, मैं' जहाजको बंदरपर लाकर मुसाफिरोंको उतरवाकर छोडूंगा। मुझे वह हमेशा सविस्तार पत्र लिखा करते । तकदीरसे इस बार स्वर्गीय मनसुखलाल हीरालाल नाजर मुझे मिलने डरबन या पहुंचे थे । वह बड़े चतुर और जवांमर्द आदमी थे । उन्होंने लोगोंको नेक सलाह दी। उनके वकील मि० लाटन थे । वह भी वैसे ही बहादुर आदमी थे । उन्होंने गोरोंके कामकी खूब निंदा की और लोगोंको जो सलाह दी वह केवल वकील की हैसियतसे, फीस लेने के लिए नहीं, बल्कि एक सच्चे मित्रके तौरपर दी थी ।
इस तरह डरबनमें द्वंद्व-युद्ध छिड़ा । एक ओर बेचारे मुट्ठी भर भारतवासी और उनके इने-गिने अंग्रेज मित्र, तथा दूसरी ओर धन-बल, बाहु-बल, अक्षरबल और संख्या बल में भरे-पूरे अंग्रेज | फिर इस बलशाली प्रतिपक्षीके साथ सत्ता - बल भी मिल गया; क्योंकि नेटाल - सरकारने प्रकट रूप से उसकी सहायता की । मि० हैरी एस्कम्ब जो प्रधान-मंडलमें थे और उसके कर्ता-धर्ता थे, उन्होंने इस मंडलकी सभा में खुले तौरपर भाग लिया था ।
इसलिए हमारा सूतक केवल आरोग्यके नियमोंका ही अहसानमंद न था । बात यह थी कि एजेंटको अथवा यात्रियोंको किसी-न-किसी बहाने तंग करके हमें