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________________ अध्याय २: तूफान वे प्रतिनिधि और हामी थे, मेरे मन में बड़ा खेद उत्पन्न हुआ। उसीका विचार करता रहा था। और इसी कारण उसीके संबंधमें अपने विचार मैंने इस छोटीसी सभामें पेश किये और श्रोताओंने उन्हें सहन भी किया। जिस भाव से मैंने उन्हें पेश किया था उसी भावमें कप्तान इत्यादिने उन्हें ग्रहण किया था। मैं यह नहीं जानता कि उसके कारण उन्होंने अपने जीवनमें कोई परिवर्तन किया था, या नहीं; पर इस भाषणके बाद कप्तान तथा दूसरे अधिकारियोंके साथ पश्चिमी संस्कृतिके संबंधों मेरी बहुतेरी बातें हुईं। पश्चिमी संस्कृतिको मैंने प्रधानतः हिंसक बताया, पूर्वकी संस्कृतिको अहिंसक । प्रश्नकत्तोिंने मेरे सिद्धांत मुझीपर घटाये । शायद, बहुत करके, कप्तानने पूछा--" गोरे लोग जैसी धमकियां दे रहे हैं उसीके अनुसार यदि वे आपको हानि पहुंचावें तो आप फिर अपने अहिंसासिद्धांतका पालन किस तरहसे करेंगे ?" मैंने उत्तर दिया-- “ मुझे आशा है कि उन्हें माफ कर देनेकी तथा उनपर मुकदमा न चलानेकी हिम्मत और बुद्धि ईश्वर मुझे दे देगा। आज भी मुझे उनपर रोष नहीं है। उनके अज्ञान तथा उनकी संकुचित दृष्टिपर मुझे अफसोस होता है; पर मैं यह मानता हूं कि वे शुद्ध-भावसे यह मान रहे हैं कि हम जो-कुछ कर रहे हैं वह ठीक है; और इसलिए मुझे उनपर रोष करनेका कारण नहीं ।” पूछनेवाला हंसा । शायद उसे मेरी बातपर भरोसा न हुआ । इस तरह हमारे दिन गुजरे और बढ़ते गये। सूतक बंद करनेकी मियाद अंततक मुकर्रर न हुई। इस विभागके कर्मचारीसे पूछता तो कहता--"यह बात मेरे इख्तियारके बाहर है। सरकार मुझे जब हुक्म देगी तब मैं उतरने दे सकता हूं।" अंतको मुसाफिरोंके और मेरे पास आखिरी चेतावनियां आई। दोनोंको धमकियां दी गई थीं कि अपनी जानको खतरेमें समझो। जवाबमें हम दोनोंने लिखा कि नेटालके बंदरमें उतरनेका हमें हक हासिल है; और चाहे जैसा खतरा क्यों न हो, हम अपने हकपर कायम रहना चाहते हैं । अंतको तेईसवें दिन अर्थात् १३ जनवरीको जहाजको इजाजत मिली और मुसाफिरोंको उतरने देनेकी आज्ञा जारी हो गई ।
SR No.100001
Book TitleAtmakatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandas Karamchand Gandhi, Gandhiji
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1948
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationInterfaith & Interfaith
File Size70 MB
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