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आत्म-कथा : भाग ३
नालिश करने की धमकी देकर नालिश न करना और उसे कुछ भी जवाब न देना मुझे अच्छा न लगा ।
इस बीच काठियावाड़की अंदरूनी खटपटका भी मुझे कुछ अनुभव हुआ । काठयावाड़ अनेक छोटे-छोटे राज्यों का प्रदेश है । वहां राजकाजी लोगोंकी बहुतायत होना स्वाभाविक था । राज्योंमें परस्पर गहरे षड्यंत्र; पदप्रतिष्ठा पाने के लिए षड्यंत्र; राजा कच्चे कानके और परावीन; साहबोंके चपरासियोंकी खुशामद; सरिश्तेदारको डेढ़ साहब समझिए - - क्योंकि सरिश्तेदार साहबकी आंख, साहबके कान, और उसका दुभाषिया सब कुछ । सरिश्तेदार जो बता दे वही कायदा । सरिश्तेदार की आमदनी साहबकी आमदनीसे ज्यादा मानी जाती थी । संभव है कि इसमें कुछ प्रत्युक्ति हो । पर यह बात निर्विवाद है कि सरिश्तेदारके थोड़े वेतन के मुकाबले में उसका खर्च ज्यादा रहता था ।
यह वायुमंडल मुझे जहरके समान प्रतीत हुआ । दिन-रात मेरे मनमें यह विचार रहने लगा कि यहां अपनी स्वतंत्रताकी रक्षा किस तरह कर सकूंगा ? होते-होते मैं उदासीन रहने लगा। भाईने मेरा यह भाव देखा । यह विचार आया कि कहीं कोई नौकरी मिल जाय तो इन षड्यंत्रोंसे पिंड छूट सकता हैं । परंतु बिना षड्यंत्रोंके न्यायाधीश अथवा दीवानका पद कहांसे मिल सकता था ? और वकालत करने के रास्ते में साहबके साथ वाला झगड़ा खड़ा हुआ था । पोरबंदरमें राणा साहबको अख्तियार न थे, उसके लिए कुछ अधिकार प्राप्त करने की तजवीज चल रही थी । मेर लोगोंसे ज्यादा लगान लिया जाता था । उसके संबंध में भी मुझे वहांके एडमिनिस्ट्रेटर - मुख्य राज्याधिकारी -- से मिलना था । मैंने देखा कि एडमिनिस्ट्रेटर के देशी होते हुए भी उनका रौबदाब साहबसे भी ज्यादा था । वह थे तो योग्य; परंतु उनकी योग्यताका लाभ प्रजाजनको बहुत न मिलता था । अंतमें राणा साहबको तो थोड़े अधिकार मिले | परंतु मेर लोगोंके हाथ कुछ न आया। मेरा खयाल हैं कि उनकी तो बात भी पूरी न सुनी गई ।
इसलिए यहां भी अपेक्षाकृत निराश हुआ। मुझे लगा कि इन्साफ नहीं हुआ । इन्साफ पाने के लिए मेरे पास कोई साधन न था । बहुत हुआ तो बड़े साहबके यहां अपील करदी । वह हुक्म लगा देता --' हम इस मामलेमें दखल