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बढ़ता गया है, यह बात मेरे जगत् अर्थात् 'नवजीन' इत्यादिके पाठक चाहें तो शौकसे मेरे प्रयोगोंमें हिस्सेदार बनें तथा उस सत्य परमात्माकी झलक भी मेरे साथसाथ देखें। फिर मैं यह बात अधिकाधिक मानता जाता हूं कि जितनी बातें मैं कर सकता हूं, उतनी एक बालक भी कर सकता है। और इसके लिए मेरे पास सवल कारण है। सत्यकी शोधके कारण जितने कठिन दिखाई देते हैं, उतने ही सरल हैं। अभिमानको जो बात अशक्य मालूम होती है वही एक भोले-भाले शिशुको बिलकुल सरल मालूम होती है। सत्यके शोधकको एक रज-कणसे भी नीचे रहना पड़ता है। सारी दुनिया रज-कणको पैरों तले रौंदती है; पर सत्यका पुजारी तो जबतक इतना छोटा नहीं बन जाता कि रज-कण भी उसे कुचल सके, तबतक स्वतंत्र सत्यकी झलक भी होना दुर्लभ है। यह वात वसिष्ठ-विश्वामित्रके आख्यानमें अच्छी तरह स्पष्ट करके बताई गई है। ईसाई धर्म और इस्लाम भी इसी बातको साबित करते हैं ।
आगे जो प्रकरण क्रमशः लिखे जायंगे उनमें यदि पाठकको मेरे अभिमानका भास हो तो अवश्य समझना चाहिए कि मेरी शोधमें कभी है और मेरी वे झलकें मृग-जलके सदृश है। मैं तो चाहता हूं कि चाहे मुझ जैसे अनेकोंका क्षय हो जाय, पर सत्यकी सदा जय हो। अल्पात्माको नापने के लिए सत्यका गज कभी छोटा न बने ।
मैं चाहता हूं, मेरी विनय है, कि मेरे लेखोंको कोई प्रमाणभृत न माने । उनमें प्रदर्शित प्रयोगोंको उदाहरण-रूप मानकर सब अपने-अपने प्रयोग यथाशक्ति और यथामति करें, इतनी ही मेरी इच्छा है । मुझे विश्वास है कि इस संकुचित क्षेत्रमें, अात्मा-संबंधी मेरे लेखोंसे बहुत कुछ सहायता मिल सकेगी । क्योंकि एक भी ऐसी बात जो कहने लायक है, छिपाऊंगा नहीं। पाठकोंको अपने दोषोंका परिचय में पूरा-पूरा कराने की आशा रखता हूं। क्योंकि मुझे तो सत्यके वैज्ञानिक प्रयोगोंका वर्णन करना है । यह दिखानेकी कि मैं कैसा अच्छा हूं मुझे तिल-मात्र इच्छा नहीं है । जिस नापसे मैं अपनेको नापना चाहता हूं और जो नाप हम सबको अपने लिए रखना चाहिए, उसे देखते हुए तो मैं अवश्य कहूंगा---
मो सम कौन कुटिल खल कामी। जिन तनु दियो ताहि बिसरायो ऐसो निमकहरामी ॥