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संतोष देता है तब तक उसके शुभ परिणाम पर मुझे अवश्य अटल विश्वास रहता है।
यदि मैं केवल सिद्धांतोंका अर्थात् तत्त्वोंका ही वर्णन करना चाहता होता तो मैं 'आत्म-कथा' न लिखता। परंतु मैं तो उनके आधारपर उठाये गए कार्योंका इतिहास देना चाहता हूं, और इसलिए मैंने इस प्रयत्नका पहला नाम रक्खा है 'सत्यके प्रयोग'। इसमें यद्यपि अहिंसा, ब्रह्मचर्य या तो जायंगे; परंतु मेरे निकट तो सत्य ही सर्वोपरि है, और उसमें अगणित वस्तुनोंका समावेश हो जाता है। यह सत्य स्थूल अर्थात् वाचिक सत्य नहीं है । यह तो वाचा की तरह विचारका भी सत्य है । यह सत्य केवल हमारा कल्पनागत सत्य ही नहीं, बल्कि स्वतंत्र चिरस्थायी सत्य, अर्थात् स्वयं परमेश्वर ही है ।
. परमेश्वरकी व्याख्याएं अगणित है; क्योंकि उसकी विभूतियां भी अगणित है। विभूतियां मुझे आश्चर्यचकित तो करती है, मुझे क्षण भर के लिए मुग्ध भी करती हैं, पर मैं तो पुजारी हूं सत्य-रूपी परमेश्वरका ही । मेरी दृष्टिमें यह एकमात्र सत्य है, दूसरा सब कुछ मिथ्या है। पर यह सत्य अब तक मेरे हाथ नहीं लगा है, अभी तक मै तो उसका शोधक-मात्र हूं। हां, उसकी शोधके लिए मैं अपनी प्रिय-से-प्रिय वस्तुको भी छोड़ देने के लिए तैयार हूं; और इस शोधरूपी यज्ञमें अपने शरीरको भी होम देने की तैयारी कर ली है। मुझे विश्वास है • कि इतनी शक्ति मुझमें है। परंतु जब तक इस सत्यका साक्षात्कार नहीं हो जाता तब तक मेरी अन्तरात्मा जिसे सत्य समझती है उसी काल्पनिक सत्यको अपना,
आधार मानकर, दीप-स्तम्भ समलकर, उसके सहारे में अपना जीवन व्यतीत करता हूं।
यह मार्ग यद्यपि ललवारकी धारपर चलने जैमा दुर्गम है, तथापि मझे तो अनुभवसे अत्यंत सरल मालूम हुआ है। इस रास्ते जाते हुए अपनी भयंकर भूलें भी मेरे लिए मामूली हो गई है। क्योंकि इन भूलों को करते हुए भी मैं खाइयों और खंदकोंमे बन गया हूं और अपनी समकके अनुसार नी आगे भी बड़ा हं। पर यहीं तक बस नहीं; हां, दूर-दूररो विशुद्ध मचा-यगी---- अन्नक भी देख रहा हूं। मेरा यह विश्वास दिन-दिन बढ़ना जाता है कि सृष्टि में एक-मात्र सत्यकी ही सना है और उसको गिना दूसरा कोई नहीं है । यह विधान जिला नरह