________________
- द्रवः
दोषः निजवधूं श्वश्रूश्चिरं रोदिति।। इस पद्य में घर के अभावों को देखकर रोती हुई सास की दीन दशा वर्णित है। (3/151)
दोष:-काव्यात्मभूत रस के अपकर्षक तत्त्व। काव्य का अपकर्ष करनेवाले तत्त्वों को दोष कहते हैं-दोषास्तस्यापकर्षकाः। और क्योंकि काव्य का सर्वस्व रस ही है अतः कहा जा सकता है कि काव्यात्मभूत रस के अपकर्षक तत्त्व ही दोष हैं-रसापकर्षका दोषाः। जिस प्रकार काणत्व खञ्जत्वादि शरीर का अपकर्ष करते हुए परम्परया शरीरधारी का भी अपकर्ष करते हैं, उसी प्रकार श्रुतिदुष्ट, अपुष्टार्थ आदि पहले शब्द वा अर्थ को दूषित करते हुए परम्परया काव्यात्मभूत रस का अपकर्ष करते हैं। स्वशब्दवाच्यत्व आदि तो मूर्खत्व आदि की तरह साक्षात् ही काव्यात्म के अपकर्षक होते हैं। ये काव्य में कभी-कभी दोषाभावरूप अथवा गुणरूप भी हो जाते हैं। कम से कम अनुकरण में तो सभी रसों की अदोषता प्रतिपादित की गयी है। जो दोष नियत रूप से सदा काव्य का अपकर्ष ही करें वे नित्यदोष होते हैं तथा जो परिस्थितिविशेष में दोषाभाव अथवा गुणरूप हो जायें वे अनित्य दोष हैं।
काव्य में स्थिति के आधार पर ये पाँच प्रकार के होते हैं-पददोष, पदांशदोष, वाक्यदोष, अर्थदोष और रसदोष। (7/1-2)
द्युतिः-विमर्शसन्धि का एक अङ्ग। तर्जन (डाँटना) और उद्वेजन (फटकारना) द्युति कहा जाता है-तर्जनाद्वेजने प्रोक्ता द्युतिः। यथा वे.सं. में भीमसेन की दुर्योधन के प्रति यह उक्ति-जन्मेन्दोर्विमले कुले व्यपदिशस्यद्यापि धत्से गदां, मां दुःशासनकोष्णशोणितमधुक्षीबं रिपुं भाषसे। दर्पान्धो मधुकैटभद्विषि हरावप्युद्धतं चेष्टसे, त्रासान्मे नृपशो विहाय समरं पङ्केऽधुना लीयसे।। (6/114)
द्रवः-विमर्शसन्धि का एक अङ्ग। शोक, आवेश आदि के कारण गुरुओं का व्यतिक्रम द्रव नामक सन्ध्यङ्ग है-द्रवो गुरुव्यतिक्रान्तिः शोकावेगादि सम्भवा। वे.सं. में युधिष्ठिर की बलराम के प्रति यह उक्ति-भगवन्! कृष्णाग्रज! सुभद्राभ्रात:! ज्ञातिप्रीतिर्मनसि न कृता क्षत्रियाणां न धर्मारूढं सख्यं तदपि गणितं नानुजस्यार्जुनेन। तुल्यः कामं भवतु भवतः शिष्ययोः स्नेहबन्धः,