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दूती
दुष्क्रमत्वम् में पीठमर्द के विलासों का वर्णन होता है तथा दस नाली समय वाला चतुर्थाङ्क नागर जनों की क्रीडाओं से विभूषित होता है-दुमल्ली चतुरङ्का स्यात्कैशिकी भारती तथा। अगर्भा नागरनरा न्यूननायकभूषिता। त्रिनालिः प्रथमोऽङ्कोऽस्यां विटक्रीडामयो भवेत्। पञ्चनालिर्द्वितीयोऽङ्को विदूषकविलासवान्। षण्णालिकस्तृतीयस्तु पीठमर्दविलासवान्। चतुर्थो दशनालिः स्यादङ्कः क्रीडितनायकः।। इसका उदाहरण बिन्दुमती है। (6/297)
दुष्क्रमत्वम्-एक काव्यदोष। जहाँ निरूपित वस्तुओं का क्रम अनुचित हो वहाँ दुष्क्रमत्व दोष होता है। यथा-देहि में वाजिनं राजन् गजेन्द्रं वा मदालसम्। वास्तव में गजेन्द्र का पहले याचन होना चाहिए। यह अर्थदोष है। (7/5)
दुःश्रवत्वम्-एक काव्यदोष। परुष वर्णों से युक्त होने के कारण जो सुनने में कष्टकर लगे उसे दुःश्रव कहते हैं-परुषवर्णतया श्रुतिदुःखावहत्वं दुःश्रवत्वम्। यथा-कातर्थ्य यातु तन्वङ्गी कदाऽनङ्गवशंवदा। यहाँ र् त् थ् वर्णों का संयोग होने के कारण कठोरता उत्पन्न हुई है। अतः पद के अधिकांश भाग को दूषित करता हुआ यह पददोष है। यह शृङ्गारादि कोमल रसों का ही विघातक होता है, वीररौद्रादिक रसों में तो इसका प्रयोग गुण ही है। यदि कोई वैयाकरण वक्ता या श्रोता हो तो भी यह गुण ही होता है। इस प्रकार यह अनित्यदोष है। तद्गच्छ सिद्ध्यै कुरुदेवकार्यम्' में 'सिद्ध्यै' का 'ध्यै' अंश श्रुतिकष्ट है, अतः यह पदांशदोष भी है। (7/3)
दूतः-नायक का सहायक। जिसे नायक किसी कार्य से प्रेषित करे वह दूत कहा जाता है-कार्यप्रेष्यो दूतः। दूत तीन प्रकार के होते हैं-निसृष्टार्थ, मितार्थ और सन्देशहारक-निसृष्टार्थो मितार्थश्च तथा सन्देशहारकः। (3/58)
दूती-सन्देशप्रेषण में प्रवीण स्त्री। जो नायक तथा नायिका के सन्देश एक दूसरे के पास ले जाती है, उनका विरहनिवेदन दूसरे के सामने प्रकट करती है तथा उनका संयोग करवाती है, वह दूती कही जाती है। नायिका की सखी, नटी, दासी, धाय की लड़की, पड़ोसिन, बालिका, संन्यासिनी, धोबिन आदि तथा चित्र बनाने वाली स्त्री तथा कभी-कभी स्वयं नायिका