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दिष्टम्
दुर्मल्लिका हर्ष, धृति आदि व्यभिचारीभावों से परिपुष्ट होकर दानवीर रस के रूप में अनुभूति का विषय बन रहा है। (3/228)
दिष्टम्-एक नाट्यलक्षण। देशकालानुरूप वर्णन को दिष्ट कहते हैं-देशकालस्वरूपेण वर्णना दिष्टमुच्यते। वे.सं. में सहदेव की यह उक्ति-यवैद्युतमिव ज्योतिरार्ये क्रुद्धेऽद्य सम्भृतम्। तत्प्रावृडिव कृष्णेयं नूनं संवर्द्धयिष्यति।। इसका उदाहरण है। (6/184)
दीपकम्-एक अर्थालङ्कार। अप्रस्तुत और प्रस्तुत पदार्थों से जब एक धर्म का सम्बन्ध हो अथवा अनेक क्रियाओं का एक कारक हो तब दीपक अलङ्कार होता है-अप्रस्तुतप्रस्तुतयोर्दीपकं तु निगद्यते। अथ कारकमेकं स्यादनेकासु क्रियासु चेत्।। यथा-बलावलेपादधुनापि पूर्ववत् प्रबाध्यते तेन जगज्जिगीषुणा। सती च योषित्प्रकृतिश्च निश्चला पुमांसमभ्येति भवान्तरेष्वपि।। इस श्लोक में प्रस्तुत प्रकृति तथा अप्रस्तुत स्त्री का एक ही अनुगमन क्रिया के साथ सम्बन्ध प्रदर्शित किया गया है। कविराज विश्वनाथ के ही पद्य-दूरं समागतवति त्वयि जीवनाथे, भिन्ना मनोभवशरेण तपस्विनी सा। उत्तिष्ठति स्वपिति वासगृहं त्वदीयमायाति याति हसति श्वसिति क्षणेन।। में एक ही नायिका का उत्थान आदि अनेक क्रियाओं के साथ सम्बन्ध प्रदर्शित है।
गुणक्रिया आदि की आदिमध्यान्त स्थिति के आधार पर इसके भेद प्रदर्शित नहीं किये जाने चाहिएँ क्योंकि इस प्रकार की विचित्रतायें तो सहस्रों प्रकार से सम्भव हैं। (10/67)
दीप्तिः-नायिका का सात्त्विक अलङ्कार। अत्यन्त विस्तीर्ण कान्ति ही दीप्ति कही जाती है-कान्तिरेवातिविस्तीर्णा दीप्तिरित्यभिधीयते। (देखें कान्ति) यथा-तारुण्यस्य विलासः समधिकलावण्यसम्पदो हासः। धरणितलस्याभरणं युवजनमनसो वशीकरणम्। (3/109)
दुर्मल्लिका-उपरूपक का एक भेद। यह चार अङ्कों का कैशिकी और भारती वृत्तियों से सम्पन्न उपरूपक है। इसमें गर्भसन्धि नहीं होती। पात्रों में अनेक नागर नर होते हैं परन्तु नायक न्यून कोटि का होता है। तीन नाली समय वाला प्रथमाङ्क विट की क्रीडाओं से युक्त होता है। पाँच नाली का द्वितीयाङ्क विदूषक की क्रीडाओं से युक्त होता है। छ: नाली के तृतीयाङ्क