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दक्षिणः
दानवीरः से युक्त होता है-सप्ताष्टनवपञ्चाङ्कं दिव्यमानुषसंश्रयम्। त्रोटकं नाम तत्प्राहुः प्रत्यक्षं सविदूषकम्।। सात अङ्कों वाला त्रोटक स्तम्भितरम्भम् तथा पाँच अङ्कों का विक्रमोर्वशीयम् है। (6/282)
दक्षिणः-नायक का एक भेद। अनेक नायिकाओं में समान अनुराग रखने वाला दक्षिण नायक कहा जाता है-एषु त्वनेकमहिलासमरागो दक्षिणः कथितः। यथा-स्नाता तिष्ठति कुन्तलेश्वरसुता वाराङ्गराजस्वसुः, द्यूते रात्रिरियं जिता कमलया, देवी प्रसाद्याद्य च। इत्यन्तःपुरसुन्दरीः प्रति मया विज्ञाय विज्ञापिते, देवेनाप्रतिपत्तिमूढमनसा द्वित्राः स्थितं नाडिकाः।। (3/42)
दयावीर:-वीर रस का एक भेद। दयामूलक उत्साह नामक स्थायीभाव जहाँ विभावादि के द्वारा परिपुष्ट होकर रस के रूप में अनुभूति का विषय बने वहाँ दयावीर रस होता है। यथा-शिरामुखैः स्यन्दत एष रक्तमद्यापि देहे मम मांसमस्ति। तृप्तिं न पश्यामि तवापि तावत् किं भक्षणात्त्वं विरतो गरुत्मन्।। जीमूतवाहन की इस उक्ति में नाग आलम्बन, उसकी कातरता उद्दीपन विभाव, आनन्द अनुभाव तथा धैर्य नामक व्यभिचारीभाव से पुष्ट होकर दयामूलक उत्साह नामक स्थायीभाव दयावीर रस के रूप में परिणत हो रहा है। (3/228)
दाक्षिण्यम्-एक नाट्यलक्षण। चेष्टा और वाणी के द्वारा एक दूसरे के चित्त का अनुवर्तन दाक्षिण्य कहा जाता है-दाक्षिण्यं चेष्टया वाचा परचित्तानुवर्तनम्। लक्ष्मण के द्वारा विभीषण के प्रति कहा गया यह वचन-प्रसाधय पुरीं लङ्कां राजा त्वं हि विभीषणः। आर्येणानुगृहीतस्य न विघ्नः सिद्धिमन्तरा।। वाणी के द्वारा परचित्त के प्रसादन का उदाहरण है। (6/193)
दानम्-नायिका का मानभङ्ग करने का एक उपाय। भूषण आदि देने के व्याज से नायिका को प्रसन्न करना दान कहलाता है-दानं व्याजेन भूषादेः। (3/208)
दानवीरः-वीर रस का एक भेद। उत्साह नामक स्थायीभाव जहाँ त्यागमूलक हो, वहाँ दानवीर रस होता है। यथा-त्यागः सप्तसमुद्रमुद्रितमहीनिर्व्याजदानावधिः। यहाँ परशुराम का त्यागमूलक उत्साह नामक स्थायीभाव सम्प्रदानभूत ब्राह्मणरूप आलम्बन तथा सत्त्वगुणपरायणता आदि उद्दीपनों से विभावित होकर, सर्वस्वत्याग आदि से अनुभावित होकर तथा