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त्रिगतम्
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त्रोटकम्
त्रिगतम् - वीथ्यङ्ग । श्रुति की समानता के कारण अनेक अर्थों की कल्पना त्रिगत नामक वीथ्यङ्ग होता है - त्रिगतं स्यादनेकार्थयोजनं श्रुतिसाम्यतः। धनञ्जय के अनुसार इस नाम की सार्थकता नट, नटी तथा पारिपार्श्विक के द्वारा सम्पादित होने में है - नटादित्रितयालापः । वि.उ. नाटक में राजा अपने ही द्वारा कहे गये वाक्य "सर्वक्षितिभृतां नाथ, दृष्टा सर्वाङ्गसुन्दरी । रामा रम्ये वनान्तेऽस्मिन्मया विरहिता त्वया " ।। की प्रतिध्वनि सुनकर मया विरहिता त्वया दृष्टा' के स्थान पर 'त्वया विरहिता मया दृष्टा' इस प्रकार अन्वय करके उसे उत्तर वाक्य समझ लेता है तथा उन्मत्त की भाँति, "कथं दृष्टेत्याह " इस प्रकार कहता है, यह त्रिगत का उदाहरण है। (6/265)
त्रिगूढकम् - एक लास्याङ्ग । स्त्रीवेशधारी पुरुषों का श्लक्ष्ण नाट्य त्रिगूढ़क कहा जाता है - स्त्रीवेषधारिणां पुंसां नाट्यं श्लक्ष्णं त्रिगूढ़ कम् । यथा मा.मा. में मकरन्द का मालती बन जाना - एषोऽस्मि मालती संवृत्तः । (6/247)
त्रिविद्रवः - अचेतन, चेतन तथा चेतनाचेतन के द्वारा किया जाने वाला तीन प्रकार का विद्रव होता है। अचेतन विद्रव अग्नि, वायु आदि के द्वारा तथा चेतन युद्ध आदि के द्वारा उत्पन्न होता है। चेतनाचेतन से अभिप्राय गजादि के द्वारा उत्पन्न किये जाने वाले विद्रव से है। (6/258)
त्रिशृङ्गारः-शृङ्गार तीन प्रकार का होता है-धर्मशृङ्गार, अर्थशृङ्गार और कामशृङ्गार-धर्मार्थकामैस्त्रिविधः शृङ्गारः । आत्मकल्याण के लिए व्रत आदि धार्मिक कार्यों का आचरण धर्मशृङ्गार है। इसका उदाहरण पुष्पदूषितक में नन्दयन्ती के द्वारा ब्राह्मणभोजन कराया जाना है। उदयन का अपने राज्य की पुनः प्राप्ति के लिए पद्मावती के साथ विवाह करना अर्थशृङ्गार है क्योंकि यह स्वार्थपूर्ति के निमित्त किया गया है। स्त्री के साथ मिलन के लिए उन्माद आदि के द्वारा होने वाला व्यवहार कामशृङ्गार है, यथा उदयन का प्रणयवश वासवदत्ता से विवाह । इनमें से कामशृङ्गार प्रथम अङ्क में ही होता है, शेष के लिए कोई नियम नहीं है। (6/ 258)
त्रोटकम् - उपरूपक का एक भेद। सात, आठ, नौ अथवा पाँच अङ्कों से युक्त तथा देवताओं और मनुष्यों से संश्रित नाट्यविधा त्रोटक कही जाती है। इसके प्रत्येक अङ्क में विदूषक का प्रवेश होता है, अत: यह शृङ्गार रस