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तद्गुणः
तर्कः चार अङ्कों की इस रचना में विष्कम्भक और प्रवेशक का प्रयोग वर्जित है। रौद्र रस का अङ्गी तथा शान्त, हास्य और शृङ्गार के अतिरिक्त छः रसों का अङ्गरूप में विधान है। सोलह नायक अत्यन्त उद्धत प्रकृति के देव, गन्धर्व,यक्ष, राक्षस,महासर्प, भूत, प्रेत, पिशाचादिक होते हैं मायेन्द्रजालसङ्ग्रामक्रोधोद्धान्तादिचेष्टितैः। उपरागैश्च भूयिष्ठो डिमः ख्यातेतिवृत्तकः। अङ्गी रौद्ररसस्तत्र सर्वेऽङ्गानि रसाः पुनः। चत्वारोऽङ्काः मता नेह विष्कम्भकप्रवेशकौ। नायका देवगन्धर्वयंक्षरक्षोमहोरगाः। भूतप्रेतपिशाचाद्याः षोडशात्यन्तमुद्धताः। वृत्तयः कैशिकीहीना निर्विमर्शाश्च सन्धयः। दीप्ताः स्युः षड्रसाः शान्तहास्यशृङ्गारवर्जिताः।। आचार्य भरत के अनुसार इसका उदाहरण त्रिपुरदाह है। (6/259)
तद्गुणः-एक अर्थालङ्कार। अपने गुणों को छोड़कर अत्युत्कृष्ट वस्तु के गुणों को ग्रहण करने में तद्गुण अलङ्कार होता है-तद्गुणः स्वगुणत्यागादत्युत्कृष्टगुणग्रहः। यथा-जगाद वदनच्छद्मपद्मपर्यन्तपातिनः। नयन्मधुलिहः श्वैत्यमुदग्रदशनांशुभिः।। इस पद्य में बलभद्र के मुखकमल के निकट घूमने वाले भ्रमरों का उनके दाँतों की प्रभा से श्वेत होने का वर्णन है।
मीलित अलङ्कार में प्रकृत वस्तु अन्य वस्तु से आच्छादित हो जाती है, यहाँ वह अन्य वस्तु के गुणों से आक्रान्त होती है। (10/117)
तन्मयता-प्रवास विप्रलम्भ में काम की अष्टम दशा। भीतर बाहर सब ओर प्रिय का ही दृष्टिगोचर होना तन्मयता कही जाती है-तन्मयं तत्प्रकाशो हि बाह्याभ्यन्तरस्तथा। (3/212)
तपनम्-नायिका का सात्त्विक अलङ्कार। प्रिय के वियोग में कामोद्वेग की चेष्टाओं को तपन कहते हैं-तपनं प्रियविच्छेदे स्मरावेगोत्थचेष्टितम्। यथा-श्वासान्मुञ्चति भूतले विलुठति त्वन्मार्गमालोकते, दीर्घ रोदिति विक्षिपत्यत इतः क्षामां भुजावल्लरीम्। किञ्च प्राणसमान कासितवती स्वप्नेऽपि ते सङ्गम, निद्रां वाञ्छति न प्रयच्छति पुनर्दग्धो विधिस्तामपि।। (3/125)
तर्क:-शिल्पक का एक अङ्ग। किसी तथ्य को निश्चित करने के लिए किया गया आत्मपरीक्षण तर्क कहा जाता है। (6/295)