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छादनम्
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जडता
आचार्य विश्वनाथ ने यहाँ कुछ अन्य आचार्यों का मत भी उद्धृत किया है जो दूसरे के किसी कार्य को उद्दिष्ट करके वञ्चना, हास्य तथा रोष को उत्पन्न करने वाले कथन के विन्यास को छल नामक वीथ्यङ्ग मानते हैं- अन्ये त्वाहुश्छलं किञ्चित्कार्यमुद्दिश्य कस्यचित् । उदीर्यते यद्वचनंं वञ्चनाहास्यरोषकृत्।। इस प्रकार का लक्षण सागरनन्दी के ना.ल.र. को. में भी प्राप्त होता है-छलं स्याद्वाच्यमन्यार्थं हास्यरोषातिसन्धिकृत्। (6/266-68)
छादनम् - विमर्शसन्धि का एक अङ्ग । अपने कार्य की सिद्धि के लिए अपमानादि का सहन करना छादन कहा जाता है - तदाहुश्छादनं पुनः। कार्यार्थमपमानादेः सहनं खलु यद्भवेत् । यथा वे.सं. में अर्जुन का भीम के प्रति यह कथन - अप्रियाणि करोत्येष, वाचा शक्तो न कर्मणा । हतभ्रातृशतो दुःखी, प्रलापैरस्य का व्यथा । यहाँ दुर्योधन के अपमान करने वाले प्रलापों से भीम को व्यथित न होने के लिए कहा गया है! (6/122)
छेकानुप्रासः - अनुप्रास का एक भेद । व्यञ्जनसमुदाय की एक ही बार अनेक प्रकार से आवृत्ति को छेकानुप्रास कहते हैं-छेको व्यञ्जनसङ्घस्य सकृत्साम्यमनेकधा। ‘अनेकधा' पद के प्रयोग के द्वारा स्वरूपतः और क्रमतः दोनों ही प्रकार की समानता अभीष्ट है। रस: और सर: में समान वर्णों का प्रयोग हुआ है परन्तु क्रम भिन्न हो जाने के कारण यह इस अलङ्कार का विषय नहीं बनता। इसके उदाहरण के रूप में आचार्य विश्वनाथ ने अपने पिता के द्वारा निर्मित पद्य को उद्धृत किया है - आदाय बकुलगन्धानन्धीकुर्वन्पदे पदे भ्रमरान्। अयमेति मन्दमन्दं कावेरीवारिपावनः पवनः । । यहाँ 'गन्धानन्धी', 'कावेरीवारि' तथा 'पावनः पवनः' अलङ्कार के स्थल हैं। छेक अर्थात् विदग्धजनों के द्वारा प्रयोज्य होने के कारण इसकी संज्ञा अन्वर्थिका है। (10/4)
जडता - एक व्यभिचारीभाव। यह स्थिति इष्ट अथवा अनिष्ट के दर्शन तथा श्रवण से उत्पन्न होती है और वह किंकर्तव्यविमूढ़ होकर चुपचाप निर्निमेष देखता रहता है-- अप्रतिपत्तिर्जडता स्यादिष्टानिष्टदर्शन श्रुतिभिः । अनिमिषनयननिरीक्षणतूष्णींभावादयस्तत्र ॥ यथा - केवलन्तद्युवयुगलमन्योन्यनिहितसजलमन्थरदृष्टि । आलेख्यार्पितमिव क्षणमात्रं तत्र स्थितमासन्नकम्॥ यहाँ इष्टदर्शन से उत्पन्न जड़ता का वर्णन है । ( 3/154 )