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चूर्णकम्
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छलम्
चूर्णकम्-गद्य का एक प्रकार। अल्पसमासयुक्त रचना को चूर्णक कहा जाता है-तुर्यं (चूर्णकम्) चाल्पसमासकम्। इसका उदाहरण स्वयं विश्वनाथरचित-गुणरत्नसागर! जगदेकनागर! कामिनीमदन! जनरञ्जन! इत्यादि पंक्ति है। (6/310)
चूलिका-अर्थोपक्षेपक का एक भेद। जवनिका में स्थित पात्रों के द्वारा दी गयी कथावस्तु की सूचना चूलिका कही जाती है-अन्तर्जवनिकासंस्थैः सूचनार्थस्य चूलिका। यथा म.च. के चतुर्थाङ्क में "भो भो वैमानिकाः, प्रवर्त्तन्तां रङ्गमङ्गलानि। रामेण परशुरामो जितः।" यह नेपथ्य से पात्रों के द्वारा सूचित किया जाता है। (6/39)
चेट:-नायक का सहायक। यह नायक का दास होता है। सा.द. में इसे नीच कोटि का सहायक माना गया है-तथा शकारचेटाद्या अधमाः परिकीर्तिताः। यहाँ उसका लक्षण भी नहीं किया गया, केवल प्रसिद्ध कहकर छोड़ दिया गया है-चेटः प्रसिद्ध एव। भानुदत्त ने उसे नायकनायिका को मिलाने में चतुर कहा है-सन्धानचतुरश्चेटकः। स्पष्ट है, यह केवल शृङ्गार में ही नायक की सहायता करता है। (3/57)
च्युतसंस्कारता-एक काव्यदोष। च्युतसंस्कारत्व का अर्थ है-व्याकरण के संस्कार से हीन पद का प्रयोग करना। यथा-गाण्डीवीकनकशिलानिभं भुजाभ्यामाजघ्ने विषमविलोचनस्य वक्षः। व्याकरण के नियम के अनुसार आपूर्वक हन् धातु का प्रयोग आत्मनेपद में तभी होता है जब उसका कर्म स्वाङ्ग हो परन्तु यहाँ आजघ्ने' क्रिया का कर्म शङ्कर का वक्षःस्थल है और उसका कर्ता अर्जुन। अतः यहाँ आत्मनेपद का प्रयोग संस्कारहीनता है। परस्मैपद में 'आजघान' पद प्रयुक्त होना चाहिए। यह पददोष है। (7/3)
छलम्-एक वीथ्यङ्ग। प्रिय लगने वाले अप्रिय वाक्यों से लोभ दिखाकर छलने में छल नामक वीथ्यङ्ग होता है-प्रियाभैरप्रियैर्वाक्यैर्विलोभ्यच्छलना छलम्। यथा वे.सं. में यह वाक्य-कर्ता द्यूतच्छलानां जतुमयशरणोद्दीपनः सोऽभिमानी, कृष्णाकेशोत्तरीयव्यपनयनपटुः पाण्डवा यस्य दासाः। राजा दुःशासनादेर्गुरुरनुजशतस्याङ्गराजस्य मित्रं, क्वास्ते दुर्योधनोऽसौ कथयत न रुषा द्रष्टुमभ्यागतौ स्वः।।