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गेयपदम्
गौणीलक्षणा नाटिका में नायिका के मुख को देखकर राजा की यह उक्ति-असावन्तश्चञ्चद्विकचनवनीलाब्जयुगलस्तलस्फूर्जत्कम्बुर्विलसदलिसङ्घात उपरि। विना दोषासङ्गं सततपरिपूर्णाखिलकलः, कुतः प्राप्तश्चन्द्रो विगलितकलङ्कः सुमुखि ते।। (6/187)
गेयपदम्-एक लास्याङ्ग। वीणा आदि को आगे रखकर आसनस्थ पुरुष अथवा स्त्री के शुष्क गान को गेयपद कहते हैं-तन्त्रीभाण्डं पुरस्कृत्योपविष्टस्यासने पुरः। शुष्कं गानं गेयपदम्।। यथा, गौरीगृह में वीणा के साथ मलयवती का यह गान-उत्फुल्लकमलकेसरपरागगौरद्युते। मम हि गौरि! अभिवाञ्छितं प्रसिध्यतु भगवति युष्मत्प्रसादेन।। (6/242)
गोत्रस्खलनम्-नायक के मुख से नायिका के सामने अचानक किसी अन्य नायिका का नाम निकल जाना गोत्रस्खलन कहा जाता है। ____ गोष्ठी-उपरूपक का एक भेद। गोष्ठी एकाङ्की उपरूपक है। इसमें गर्भ और विमर्श सन्धियों का प्रयोग नहीं होता। यह नौ अथवा दश प्राकृत पुरुषों तथा पाँच अथवा छ: स्त्रियों से युक्त होती है। कैशिकी वृत्ति और काम तथा शृङ्गार प्रधान होते हैं। इसमें उदात्त वचनों का प्रयोग नहीं होता-प्राकृतैर्नवभिः पुंभिर्दशभिर्वाप्यलङ्कृता। नोदात्तवचना गोष्ठी कैशिकी वृत्तिशालिनी। हीना गर्भविमर्शाभ्यां पञ्चषड्योषिदन्विता। कामशृङ्गारसंयुक्ता स्यादेकाङ्कविनिर्मिता।। यथा, रैवतमदनिका। (6/283)
गौडी-रीति का एक प्रकार। ओज गुण को प्रकाशित करने वाले वर्णों से युक्त उद्भट बन्ध तथा दीर्घ समासों से युक्त रचना गौडी कही जाती है-ओजः प्रकाशकैर्वर्णैः रचना ललितात्मिका। समासबहुला गौडी। आचार्य पुरुषोत्तम ने इसमें अनुप्रास, यमकादि शब्दालङ्कारों के प्रयोग पर भी बल दिया है। यथा-चञ्चद्भुजभ्रमितचण्डगदाभिघातसञ्चूर्णितोरुयुगलस्य सुयोधनस्य। स्त्यानावनद्धघनशोणितशोणपाणिरुत्तंसयिष्यति कचांस्तव देवि भीमः।। (9/4)
गौणीलक्षणा-लक्षणा का एक भेद। चार प्रकार की सारोपा तथा चार प्रकार की साध्यवसाना, यह आठ प्रकार की लक्षणा सादृश्यसम्बन्ध से युक्त होने पर गौण कही जाती है--सादृश्यात्तु मता गौण्यः। इस प्रकार गौणी लक्षणा आठ प्रकार की होती है-(1) रूढ़िउपादानसारोपागौणी--एतानि तैलानि हेमन्ते