________________
गुणकथनम्
65
गुणातिशय:
ये गुण तीन हैं - माधुर्य, प्रसाद और ओज । प्राचीन आचार्यों के द्वारा जो दशदश शब्द और अर्थगुणों का विवेचन किया गया है, उनमें से श्लेष, प्रसाद, उदारता और समाधि नामक शब्दगुण ओज में अन्तर्भूत हो जाते हैं। अर्थव्यक्ति का प्रसाद में ग्रहण हो जाता है। कान्ति और सुकुमारता ग्राम्य और दुःश्रवत्व नामक दोषों के परित्याग से ही सम्पन्न हो जाते हैं जबकि समता तो वास्तव में गुण न होकर दोषरूप ही है । अर्थगुणों में प्रसाद, समता, माधुर्य, सुकुमारता, उदारता और ओज वास्तव में दोषाभाव रूप ही हैं। अर्थव्यक्ति का स्वभावोक्ति अलङ्कार में तथा कान्ति का रसादि में ग्रहण हो जाता है। श्लेष केवल विचित्रतामात्र ही है जबकि समाधि कोई गुण नहीं है। इस प्रकार वास्तव में कुल तीन ही गुण निष्पन्न होते हैं। (8/1, 10-20)
गुणकथनम्-- पूर्वराग में काम की चतुर्थ दशा । वियोगदशा में प्रिय के गुणों का वर्णन गुणकथन कहलाता है। यथा - नेत्रे खञ्जनगञ्जने सरसिजप्रत्यर्थिपाणिद्वयं, वक्षोजौ करिकुम्भविभ्रमकरीमत्युन्नतिं गच्छतः। कान्तिः काञ्चनचम्पकप्रतिनिधिर्वाणी सुधास्यन्दिनी, स्मेरेन्दीवरदामसोदरवपुस्तस्याः कटाक्षच्छटा । । इस पद्य में नायिका के सौन्दर्यादि गुणों का वर्णन हुआ है। (3/195)
गुणकीर्त्तनम् - एक नाट्यलक्षण । गुणों के वर्णन को गुणकीर्त्तन कहते हैं - गुणानां वर्णनं यत्तु तदेव गुणकीर्त्तनम् । यथा च. क. नाटिका में यह पद्य - नेत्रे खञ्जनगञ्जने सरसिजप्रत्यर्थि पाणिद्वयं, वक्षोजौ करिकुम्भविभ्रमकरीमत्युन्नतिं गच्छतः। कान्तिः काञ्चनचम्पकप्रतिनिधिर्वाणी सुधास्यन्दिनी, स्मेरेन्दीवरदामसोदरवपुस्तस्याः कटाक्षच्छटा ।। (6/202)
गुणातिपात : - एक नाट्यलक्षण | गुणों के विपरीत कार्य को गुणातिपात कहते हैं - गुणातिपातः कार्यं यद्विपरीतं गुणान्प्रति । यथा च.क. नाटिका के इस पद्य-त्वया संह्रियते तमो गृह्यते सकलैस्ते पादः । वससि शिरसि पशुपतेस्तथापि हा, स्त्रिया जीवनं हरसि । । में स्त्री के जीवन का हरण चन्द्रमा के उक्त गुणों के विपरीत है । (6/186)
गुणातिशय: - एक नाट्यलक्षण | सामान्य गुणों के उत्कर्ष को गुणातिशय कहते हैं- योऽसामान्यगुणोद्रेकः स गुणातिशयो मतः । च.क.