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________________ गुणः गर्वः 64 गर्व:-एक व्यभिचारीभाव। अपने प्रभाव, ऐश्वर्य, विद्या, कुलीनता आदि से उत्पन्न होने वाला घमण्ड गर्व कहा जाता है। अन्य जनों की अवज्ञा, विलाससहित अपने अङ्गों का प्रदर्शन करना (अंगूठा भुजा आदि का दिखाना) तथा अविनय इसके अनुभाव हैं-गर्वो मदः प्रभावश्रीविद्यासत्कुलादिजः। अविद्या सविलासाङ्गदर्शनाविमयादिकृत्।। यथा-धृतायुधो यावदहं तावदन्यैः किमायुधैः। यद्वा न सिद्धमस्त्रेण मम तत्केन साध्यताम्।। इस पद्य में कर्ण के शौर्यजनित गर्व का वर्णन है। (3/160) गर्व:-एक नाट्यालङ्कार। अहङ्कार से निकले वाक्य को गर्व कहते हैं-गर्वोऽवलेपजं वाक्यम्। यथा, अ.शा. के षष्ठाङ्क में दुष्यन्त की उक्ति, "ममापि तावत्सत्त्वैरभिभूयन्ते गृहा:"1(6/212) गर्हणम्-एक नाट्यलक्षण। दोषकथन करते समय की गयी भर्त्सना को गर्हण कहते हैं-दूषणोद्घोषणायां तु भर्त्सना गर्हणं तु तत्। यथा, वे.सं. में कर्ण के प्रति अश्वत्थामा का यह कथन-निर्वीर्यं गुरुशापभाषितवशात्किं मे तवेवायुधम्, सम्प्रत्येव भयाद् विहाय समरं प्राप्तोऽस्मि किं त्वं यथा। जातोऽहं स्तुतिवंशकीर्तनविदां किं सारथीनां कुले, क्षुद्रारातिकृताप्रिय प्रतिकरोम्यस्त्रेण नास्रेण यत्।। (6/197) गाम्भीर्यम्-नायक का सात्त्विक गुण। भय, शोक, क्रोध, हर्षादि के उपस्थित होने पर भी निर्विकार रहना गाम्भीर्य है-भीशोकक्रोधहर्षाद्यैर्गाम्भीर्य निर्विकारता। यथा-आहूतस्याभिषेकाय विसृष्टस्य वनाय च। न मया लक्षितस्तस्य स्वल्पोऽप्याकारविभ्रमः।। यहाँ राम के गाम्भीर्य का वर्णन है। (3/65) गुणः-काव्य का एक तत्त्व। शौर्य आदि जैसे आत्मा के धर्म हैं, उसी प्रकार अङ्गीरूप रस के धर्म गुण कहे जाते हैं-रसस्याङ्गित्वमाप्तस्य धर्माः शौर्यादयो यथा। गुणाः....।। ये आत्मभूत रस का उपकार करते हुए काव्य का उत्कर्ष सिद्ध करते हैं। रसनिष्ठ होने के कारण इनकी काव्य में अचल स्थिति होती है। गुण रस के धर्म होते हुए अपने व्यञ्जक वर्गों में भी काव्यत्व की सिद्धि करते हैं। जैसे शौर्यादि आत्मा के धर्म होते हुए भी लक्षणा से शरीर के धर्म माने जाते हैं उसी प्रकार रसनिष्ठ होते हुए भी ये लक्षणा से शब्दगुण कहे जाते हैं।
SR No.091019
Book TitleSahitya Darpan kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamankumar Sharma
PublisherVidyanidhi Prakashan
Publication Year
Total Pages233
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Literature
File Size9 MB
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