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गद्यम्
गर्भितता उक्ति उरुभङ्ग के अर्थ के साथ सम्बद्ध हो जाती है। पाश्चात्य नाटकों में इसी प्रकार की स्थिति को Dramatic Irony कहा जाता है। (6/270)
गद्यम्-काव्य का एक प्रकार। छन्द के बन्धन से मुक्त रचना गद्य कही जाती है-वृत्तगन्धोज्झितं गद्यम्। उसमें यद्यपि छन्द का आग्रह नहीं होता तथापि वामन ने इसे पद्य की अपेक्षा दुर्बन्ध माना था। यह चार प्रकार का होता है-मुक्तक, वृत्तगन्धि, उत्कलिकाप्राय और चूर्णक।
गर्भ:-तृतीय सन्धि। मुख और प्रतिमुख सन्धियों में किञ्चित् प्रकट हुए फलप्रधान उपाय का जहाँ ह्रास और अन्वेषण से युक्त विकास बार-बार प्रदर्शित किया जाये वहाँ गर्भ नामक सन्धि होती है-फलप्रधानोपायस्य BSCRITICIS ma प्रागुद्भिन्नस्य किञ्चन। गर्भो यत्र समुद्भेदो ह्रासान्वेषणवान्मुहुः।। कथानक के फल को गर्भ के समान अपने भीतर धारण करने के कारण इसकी गर्भ संज्ञा है। र.ना. के द्वितीय और तृतीय अङ्क की घटनायें गर्भसन्धि का उदाहरण हैं। सा.द.कार के अनुसार इसके 13 अङ्ग हैं-अभूताहरण, मार्ग, रूप, उदाहरण, क्रम, सङ्ग्रह, अनुमान, प्रार्थना, क्षिप्ति, तोटक, अधिबल, उद्वेग
और विद्रव। इनमें से प्रार्थना का ग्रहण उन आचार्यों के अनुरोध से किया गया है जो निर्वहण सन्धि में प्रशस्ति को सन्ध्यङ्ग नहीं मानते। द.रू.कार ने यहाँ 12 अङ्ग माने हैं जिनमें विद्रव की गणना नहीं की गयी। कुछ आचार्यों के अनुसार इनमें से अभूताहरण, मार्ग, तोटक, अधिबल, और क्षिप्ति प्रमुख हैं। अन्यों की स्थिति यादृच्छिक है। (6/65, 95)
गर्भाङ्कः-रूपक के एक अङ्क के मध्य प्रविष्ट दूसरा अङ्क गर्भाङ्क कहा जाता है। रङ्गद्वार और आमुख आदि इसके अङ्ग होते हैं तथा बीज
और फल का भी स्पष्ट आभास होता है-अङ्कोदरप्रविष्टो यो रङ्गद्वारामुखादिमान्। अङ्कोऽपरः स गर्भाङ्कः सबीजः फलवानपि। इसका उदाहरण बा.रा. का सीतास्वयंवर नामक गर्भाङ्क है। (6/8) ___गर्मितता-एक काव्यदोष। यदि एक वाक्य में दूसरा वाक्य अनुप्रविष्ट हो जाये तो गर्भितत्व दोष होता है। यथा-रमणे चरणप्रान्ते प्रणतिप्रवणेऽधुना। वदामि सखि ते तत्त्वं कदाचिन्नोचिताः क्रुधः।। इस पद्य में 'वदामि सखि ते तत्त्वम्' यह वाक्यान्तर बीच में प्रविष्ट हो गया है। कभी-कभी यह गुणरूप भी हो जाता है। यह वाक्यदोष है। (7/4)