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कैशिकी
क्रोधः यथा-व्यपोहितुं लोचनतो मुखानिलैरपारयन्तं किल पुष्पजं रजः। पयोधरेणोरसि काचिदुन्मनाः प्रियं जघानोन्नतपीवरस्तनी।। (3/131)
कैशिकी-एक नाट्यवृत्ति। कैशिकी प्रधानतः शरीरव्यापाररूपा वृत्ति है जिसकी उत्पत्ति सामवेद से हुई। विष्णु ने युद्ध में विचित्र अङ्गविक्षेपों से अपने केशों को बाँधा तो कैशिकी वृत्ति की उत्पत्ति हुई, अतएव इसका सम्बन्ध नाट्य में सौन्दर्य और लालित्य को उत्पन्न करने वाले व्यापारों से है। यह मनोरञ्जक नेपथ्यविधान से युक्त, स्त्रियों से व्याप्त, नृत्य और गीत से परिपूर्ण, काम और उपभोग को उत्पन्न करने वाले उपचार से युक्त, सुन्दर विलासों से युक्त वृत्ति कैशिकी कही जाती है-या श्लक्ष्णा नेपथ्यविशेषचित्रा स्त्रीसङ्कुला पुष्कलनृत्यगीता। कामोपभोगप्रभवोपचारा सा कैशिकी चारुविलासयुक्ता ।।
इसके चार अङ्ग हैं-नर्म, नर्मस्फूर्ज, नर्मस्फोट और नर्मगर्भी (6/144)
कोषः-काव्य का एक प्रकार। परस्पर निरपेक्ष श्लोकसमूह को कोष कहते हैं-कोषः श्लोकसमूहस्तु स्यादन्योन्यानपेक्षकः। इसका उदाहरण मुक्तावली है। इस प्रकार यह मुक्तक छन्दों का सङ्ग्रह है जो आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार एक अथवा अनेक कविओं के द्वारा रचित भी हो सकता है। आचार्य विश्वनाथ का कथन है कि यदि इसमें समान विषय वाले श्लोकों को एक स्थल पर सन्निविष्ट किया जाये तो वह अत्यन्त सुन्दर होता है-व्रज्याक्रमेणरचितः स एवातिमनोरमः। (6/309)
क्रमः-गर्भसन्धि का एक अङ्ग। अन्य के भाव का ज्ञान प्राप्त करना क्रम कहा जाता है-भावतत्त्वोपलब्धिस्तु क्रमः स्यात्। यथा, अ.शा. में दुष्यन्त का विरहगीत की रचना करती हुई शकुन्तला को देखकर यह कथन-स्थाने खलु विस्मितनिमिषेण चक्षुषा प्रियामवलोकयामि। तथा हि--उन्नमितैकधूलतमाननमस्याः पदानि रचयन्त्याः। पुलकाञ्चितेन कथयति मय्यनुरागं कपोलेन।। (6/100)
क्रोधः-रौद्र रस का स्थायीभाव। प्रत्येक प्रतिकूल वृत्ति की प्रतिक्रिया के रूप में तीक्ष्णता का अवबोधक भाव क्रोध कहा जाता है-प्रतिकूलेषु तैक्ष्ण्यस्यावबोधकः क्रोध इष्यते। (3/186)