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केलिः
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कुट्टमितम्
कुट्टमितम् - नायिका का सात्त्विक अलङ्कार । केश, स्तन, अधरादि के ग्रहण करने पर हर्ष होने पर भी घबराहट के कारण शिर, कर आदि के परिचालन को कुट्टमित कहते हैं - केशस्तनाधरादीनां ग्रहे हर्षेऽपि सम्भ्रमात्। आहुः कुट्टमितं नाम शिरः करविधूननम् । यथा- पल्लवोपमिति साम्यसपक्षं दष्टवत्यधरबिम्बमभीष्टे । पर्यकूजि सरुजेव तरुण्यास्तारलोलवलयेन करेण || प्रिय के अधरपल्लव पर दन्तक्षत को देखकर उसका सपक्षी करपल्लव कङ्कण की ध्वनि के माध्यम से मानो कूजन करने लगा । (3/120)
कुतूहलम् - नायिका का सात्त्विक अलङ्कार । सुन्दर वस्तु को देखकर चञ्चल होना कुतूहल कहलाता है- रम्यवस्तुसमालोके लोलता स्यात्कुतूहलम्। यथा-प्रसाधिकालम्बितमग्रपादमाक्षिप्य काचिद्रवरागमेव । उत्सृष्टलीलागतिरागवाक्षादलक्तकाङ्कां पदवीं ततान ।। यह अज के पुरी में प्रविष्ट होने पर उसे देखने के कौतूहल से युक्त नायिका का वर्णन है जो महावर लगे गीले ही पैर को झटककर झरोखे तक चली गयी और इस प्रकार सारे मार्ग को लाक्षारस से अङ्कित कर दिया । ( 3 / 128)
कुलकम् - जहाँ वाक्यार्थ की परिसमाप्ति पाँच पद्यों में होती है उसे कुलक कहते हैं - पञ्चभिः कुलकं मतम् । (6/302)
कुसुम्भरागः- पूर्वराग का एक प्रकार । जो प्रेम बहुत अधिक चमक दिखाये परन्तु धीरे-धीरे जाता भी रहे, वह कुसुम्भराग होता है - कुसुम्भरागं तत्प्राहुर्यदपैति च शोभते । (3/202)
कृति : - निर्वहणसन्धि का एक अङ्ग । प्राप्त किये गये अर्थ के द्वारा शोकादि का शमन कृति कहा जाता है- लब्धार्थशमनं कृतिः । यथा, वे.सं. में कृष्ण की " एते भगवन्तो व्यासवाल्मीकिप्रभृतयोऽभिषेकं धारयन्ति" इस उक्ति में अभिषेक से स्थिरता की सूचना दी गयी है। (6/129)
कृशता - प्रवासविप्रलम्भ में काम की चतुर्थ दशा । विरहजन्य सन्ताप में अङ्गों का कृश हो जाना कृशता नामक कामदशा है। (3/211)
केलिः - नायिका का सात्त्विक अलङ्कार । प्रिय के साथ विहार में क्रीडा को केलि कहा जाता है-विहारे सह कान्तेन क्रीडितं केलिरुच्यते ।