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काव्यलिङ्गम
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किलकिञ्चितम् शरीरस्थानीय शब्द के द्वारा आत्मस्थानीय रस का उत्कर्ष सूचित करते हैं। गुण यद्यपि रस के धर्म हैं तथापि उपर्युक्त कारिका में गुणाभिव्यञ्जक शब्द और अर्थ का बोध भी गुण शब्द से लक्षणा के द्वारा होता है। (1/3) ___ काव्यलिङ्गम्-एक अर्थालङ्कार। वाक्यार्थ अथवा पदार्थ यदि किसी का हेतु हो तो काव्यलिङ्ग अलङ्कार होता है-हेतोर्वाक्यपदार्थत्वे काव्यलिङ्ग निगद्यते। इन दोनों प्रकारों के उदाहरण क्रमशः इस प्रकार हैं-(1) यत्त्वन्नेत्रसमानकान्तिसलिले मग्नं तदिन्दीवरं, मेधैरन्तरितः प्रिये तव मुखच्छायानुकारी शशी। येऽपि त्वद्गमनानुसारिगतयस्ते राजहंसा गतास्त्वत्सादृश्यविनोदमात्रमपि मे दैवेन न क्षम्यते।। तथा (2) त्वद्वाजिराजिनिभृतधूलीपटलपङ्किलाम्। न धत्ते शिरसा गङ्गां भूरिभारभिया हरः।। प्रथम श्लोक में प्रथम तीन चरणों के वाक्य चतुर्थ चरण के वाक्य के प्रति हेतु हैं तथा द्वितीय श्लोक में पूर्वार्ध का पद उत्तरार्ध के प्रति हेतु है।
कुछ आचार्य कार्यकारणरूप अर्थान्तरन्यास को वाक्यार्थगत काव्यलिङ्ग में ही गतार्थ मानते हैं। आचार्य विश्वनाथ को यह अभिमत नहीं है। ज्ञापक, निष्पादक और समर्थक के रूप में हेतु तीन प्रकार का होता है। इनमें से ज्ञापक हेतु अनुमान का, निष्पादक काव्यलिङ्ग का तथा समर्थक हेतु अर्थान्तरन्यास का विषय है। (10/81)
काव्यसंहारः-निर्वहणसन्धि का एक अङ्ग। नायकादि को वरदान की प्राप्ति काव्यसंहार कही जाती है-वरप्रदानसम्प्राप्तिः काव्यसंहार इष्यते। यथा नाटक के अन्त में प्रायः सर्वत्र 'किं ते भूयः प्रियमुपकरोमि' आदि कथन। (6/136) __किलकिञ्चितम्-नायिका का सात्त्विक अलङ्कार। प्रिय के मिलने से उत्पन्न हर्ष से मुस्कुराहट, शुष्करुदित, हसित, भय, क्रोध, श्रमादि का सङ्कर किलकिञ्चित् कहलाता है-स्मितशुष्करुदितहसितत्रासक्रोधश्रमादीनाम्। साङ्कर्य किलकिञ्चितमभीष्टतमसंगमादिजाद्धर्षात्।। यथा-पाणिरोधमवरोधितवाञ्छ भर्त्सनाश्च मधुरस्मितगर्भाः। कामिनः स्म कुरुते करभोरूहरि शुष्करुदितं च सुखेऽपि।। (3/118)