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काव्यलक्षणम्
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काव्यलक्षणम्
जाये तो न्यक्कारो ह्ययमेव मे० इत्यादि पद्य विधेयाविमर्शदोष से युक्त होने के कारण काव्य नहीं रहेगा परन्तु ध्वनि का सद्भाव होने के कारण इसे उत्तम काव्य का निदर्शन माना जाता है। अतः यह लक्षण अपने ही लक्ष्य में गतार्थ न हो पाने के कारण अव्याप्ति दोष से दूषित है। इसके समाधान में यह नहीं कहा जा सकता कि इस श्लोक का कुछ भाग ही दूषित है, सारा पद्य नहीं, अतः जहाँ ध्वनि है उसे उत्तम काव्य तथा जिस अंश में दोष है, उसे अकाव्य मान लिया जाये क्योंकि ऐसी स्थिति में तो यह दोनों ओर से खींचा जाता हुआ काव्य अथवा अकाव्य कुछ भी न रहेगा। दूसरे, श्रुतिदुष्टादि काव्य के किसी एक अंश को दूषित नहीं करते अपितु समग्र काव्य को ही दूषित करते हैं क्योंकि दोष वही है जो काव्यात्मभूत रस का अपकर्ष करे और रस आत्मा की तरह सारे काव्य में व्याप्त रहता है। जो दोष काव्यात्मभूत रस को दूषित करते हैं उनसे सारे काव्य का ही दूषण होता है, उसके किसी एक अंश का नहीं । काव्य में नित्यदोष और अनित्यदोष की व्यवस्था का आधार भी यही है । ध्वनिकार आनन्दवर्धन ने कहा है कि श्रुतिदुष्ट आदि अनित्य दोष हैं क्योंकि ये शृङ्गारादि रसों का ही अपकर्ष करते हैं परन्तु वीरादि रसों में इस प्रकार की रचना गुण ही है। इस प्रकार जहाँ कहीं दोष से रस का अपकर्ष होता है वहाँ सम्पूर्ण काव्य ही दूषित होता है, उसका कोई अंशमात्र नहीं। इसके अतिरिक्त सर्वथा दोषरहित रचना का मिलना असम्भव ही है । लक्षणवाक्य में ऐसा विशेषण रखने से तो काव्य का विषय ही अत्यन्त विरल हो जायेगा ।
अदौषौ पद में स्थित नञ् को ईषदर्थक मानने पर 'ईषद् दोषौ शब्दार्थों काव्यम्' यह वाक्य बनेगा, अतः सर्वथा निर्दोष रचना काव्यत्व से वञ्चित हो जायेगी । 'सति सम्भवे' पद का निवेश करके, दोषों की सम्भावना होने पर ईषद् दोष वाले शब्दार्थ काव्य हों यह मत भी आचार्य विश्वनाथ को अमान्य है। वस्तुतः काव्यलक्षण में तो 'अदोषौ' विशेषण की आवश्यकता ही नहीं है क्योंकि दोष काव्य के स्वरूप का आधान नहीं करते, यह तो काव्यत्व से पूर्व की अनुवीक्षा है। यह काव्य का परिहरणीय तत्त्व है, उसका आधायक नहीं। अतएव वामन ने 'काव्यशब्दोऽयं गुणालङ्कारसंस्कृतयोः शब्दार्थयोर्वर्तते', ऐसा कहते हुए दोषों को काव्यलक्षण में स्थान नहीं दिया