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काव्यप्रयोजनम्
काव्यप्रयोजनम् को विद्वत्सभाओं में न्याय और व्याकरण जैसे शास्त्रों के समकक्ष मान्यता दिलाना चाहते थे परन्तु विश्वनाथ के समक्ष इस प्रकार की कोई परिस्थिति नहीं थी पुनरपि उन्होंने एक कदम और आगे बढ़कर तर्कपूर्वक यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि वास्तव में काव्य ही धर्मादि की प्राप्ति का सरल और सार्वजनिक उपाय है-चतुर्वर्गफलप्राप्तिः सुखादल्पधियामपि। काव्यादेव....।।
काव्य से धर्मादि की प्राप्ति भगवान् नारायण के चरणारविन्द की स्तुति के द्वारा प्रत्यक्ष सिद्ध होती है, इसके अतिरिक्त शब्द भी इस विषय में प्रमाण है-एकः शब्दः सुप्रयुक्तः सम्यग्ज्ञातः स्वर्गे लोके च कामधुग्भवति। अर्थात् काव्य की रचना तथा उसका अनुशीलन दोनों ही धर्मोत्पादक हैं क्योंकि काव्य से बढ़कर और शब्द का सुन्दर प्रयोग कहाँ प्राप्त हो सकता है। काव्य से अर्थ की प्राप्ति का उल्लेख आचार्य मम्मट ने भी किया है। इसका उदाहरण उनके समक्ष प्रत्यक्ष था कि हर्षादि राजाओं से धावक आदि कविओं को प्रभूत धन की प्राप्ति हुई थी। अर्थ से कामभोगों की प्राप्ति भी सर्वथा सम्भव ही है। काव्य से मानव के परम पुरुषार्थरूप मोक्ष की प्राप्ति को लेकर विवाद अवश्य हो सकता है परन्तु इसका समाधान भी असम्भव नहीं, यदि इसे लोकोत्तर रसवती प्रतिष्ठा में अन्तर्भूत मान लिया जाये। आचार्य विश्वनाथ ने इसका समाधान इस प्रकार किया है कि धर्मजन्य फल के परित्याग से (तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः) यह भी सुलभ है। अथवा मोक्षोपयोगी उपनिषदादि के वाक्यों में व्युत्पत्ति का आधान करने से काव्य की मोक्ष के प्रति कारणता भी बनती ही है।
वेदादि से भी चतुर्वर्ग की प्राप्ति सुतरां सम्भव है परन्तु नीरस होने के कारण उनका सम्यक् ज्ञान दुष्कर है। दूसरे, स्त्री और शूद्र का वेद में अधिकार भी नहीं-स्त्रीशूद्रौ नाधीयाताम्। अतः यह उपाय केवल कुछ परिपक्व बुद्धिसम्पन्न सहृदयों के लिए ही है जबकि काव्य से आविद्वदङ्गनाबाल सभी को धर्मादि की प्राप्ति हो सकती है। अतएव अ.पु. में इसकी उपादेयता इन शब्दों में प्रतिपादित की गयी है-नरत्वं दुर्लभं लोके, विद्या तत्र सुदुर्लभा। कवित्वं दुर्लभं तत्र शक्तिस्तत्र सुदुर्लभा।। वहीं इसे त्रिवर्ग का साधन भी बताया गया है-त्रिवर्गसाधनं नाट्यम्। वि.पु. में