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काव्यप्रयोजनम्
कारणमाला - एक अर्थालङ्कार। अगले- अगले के प्रति यदि पूर्व - पूर्व की कारणता होती जाये तो वह कारणमाला नामक अलङ्कार होता है- परं परं प्रति यदा पूर्वपूर्वस्य हेतुता । तदा कारणमाला स्यात्... ।। यथा - श्रुतं कृतधियां सङ्गाज्जायते विनयः श्रुतात् । लोकानुरागो विनयान्न किं लोकानुरागतः । । इस पद्य में बुद्धिमानों का संसर्ग शास्त्र का, शास्त्र विनय का, विनय लोकानुराग का तथा लोकानुराग समस्त प्राप्तियों का कारण निरूपित किया गया है। (10/99)
कारणमाला
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कार्यजन्यविप्रलम्भ:- प्रवासविप्रलम्भ का एक प्रकार। किसी कार्यविशेष से नायक के किसी अन्य देश में चले जाने पर होने वाला वियोग कार्यजन्य होता है। यह क्योंकि विचारपूर्वक किया जाता है, अत: यह वर्त्तमान, भूत और भविष्य इन तीनों कालों में हो सकने के कारण तीन प्रकार का होता है - भावी, भवत्, भूत। ( 6 / 210 -13 )
कार्यम् - एक अर्थप्रकृति । जो वस्तु के साध्य के रूप में अपेक्षित है, जिसके लिए सब उपाय प्रारम्भ किये जाते हैं तथा जिसकी सिद्धि के लिए सारे साधन एकत्र किये जाते हैं, वह कार्य कहा जाता है - अपेक्षितन्तु यत्साध्यमारम्भो यन्निबन्धनः । समापनन्तु यत्सिद्ध्यै तत्कार्यमिति सम्मतम् ।। यथा, रामचरित में रावणवध | ( 6 / 53 )
कार्यावस्था - नाट्यकार्य की स्थिति । नाट्य में फलप्राप्ति हेतु नायक द्वारा जो व्यापार किया जाता है, प्रारम्भ से लेकर समाप्ति पर्यन्त उसकी पाँच स्थितियों की कल्पना की गयी है, उन्हें कार्यावस्था कहा जाता है - अवस्थाः पञ्च कार्यस्य प्रारब्धस्य फलार्थिभिः । 'फलार्थिभिः ' 'पद से नायक, प्रतिनायक तथा उनके सहायक आदि का ग्रहण होता है। ये पाँच अवस्थायें हैं - आरम्भ, यत्न, प्राप्त्याशा, नियताप्ति और फलागम । (6/54)
काव्यप्रयोजनम् - काव्यशास्त्र के आद्य आचार्य भामह की परम्परा में सा.द.कार ने चतुर्वर्ग की प्राप्ति को काव्य का प्रयोजन सिद्ध किया है। आचार्य भामह ने कीर्ति और प्रीति के साथ-साथ धर्मार्थकाममोक्ष तथा कलाओं में वैचक्षण्य को काव्य के प्रयोजन के रूप में प्रतिष्ठापित किया था। भामह के द्वारा ऐसा स्वीकार किये जाने के पीछे यह तर्क था कि वे अलङ्कारशास्त्र