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करुणविप्रलम्भः
कलहान्तरिता अपस्मार, व्याधि, ग्लानि, स्मृति, श्रम, विषाद, जडता, उन्माद, चिन्ता आदि इसके व्यभिचारीभाव होते हैं। यथा-विपिने क्व जटानिबन्धनं तव चेदं क्व मनोहरं वपुः। अनयोर्घटना विधेः स्फुटं ननु खड्गेन शिरीषकर्त्तनम्।। (रा. वि.) इस पद्य में राम के वनवास से उत्पन्न होने वाले शोक से पीडित दशरथ की भाग्यनिन्दा वर्णित है। इसका परिपोष म.भा. के स्त्रीपर्व आदि में दृष्टिगोचर होता है।
करुण रस में शोक स्थायी होता है जबकि करुणविप्रलम्भ में फिर से समागम की आशा बनी रहने के कारण रति का भाव स्थायी होता है-शोकस्थायितया भिन्नो विप्रलम्भादयं रसः। विप्रलम्भे रतिः स्थायी पुनः सम्भोगहेतुकः।। (3/223-25) ___करुणविप्रलम्भः-विप्रलम्भ का एक भेद। नायक और नायिका में से किसी एक के मर जाने पर दूसरा जो सन्ताप भोगता है उसे करुणविप्रलम्भ कहते हैं परन्तु यह तभी होता है यदि परलोकगत व्यक्ति के इसी जन्म में और इसी देह से पुनः मिलने की आशा हो-यूनोरेकतरस्मिन् गतवति लोकान्तरं पुनर्लभ्ये। विमनायते यदैकस्तदा भवेत्करुणविप्रलम्भाख्यः।। कादम्बरी में पुण्डरीक और महाश्वेता का वृत्तान्त इसका उदाहरण है क्योंकि वहाँ पुण्डरीक लोकान्तर को प्राप्त हो चुका है पुनरपि आकाशवाणी के प्रामाण्य से इसी जन्म में महाश्वेता की इसी देह से उससे मिलने की आशा भी बनी
आचार्य धनञ्जय का यह मत है कि आकाशवाणी के अनन्तर ही यहाँ शृङ्गार की सम्भावना बन पाती है क्योंकि तभी रतिभाव अङ्कुरित होता है। इससे पूर्व तो करुण रस का स्थायीभाव शोक ही प्रधानरूप से व्यक्त हुआ है। आकाशवाणी से बाद के वृत्तान्त को प्रवासविप्रलम्भ नहीं मानना चाहिए क्योंकि यहाँ मरण नामक एक विशेष दशा उत्पन्न हो चुकी है तथा प्रवास के किसी भी भेद में नायक नायिका में से अन्यतर की मृत्यु वर्णित नहीं होती। (3/214) __कलहान्तरिता-नायिका का एक भेद। चाटुकारिता करते हुए प्रिय को भी जो क्रोध के कारण परे हटा दे और फिर पश्चात्ताप करे वह कलहान्तरिता