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औदार्यम्
कथोद्घातः ___ औदार्यम्-नायिका का सात्त्विक अलङ्कार। सदा विनय से युक्त रहना
औदार्य कहलाता है-औदार्यं विनयः सदा। यथा- न ब्रूते परुषां गिरं वितनुते न भ्रूयुगं भगुरं, नोत्तंसं क्षिपति क्षितौ श्रवणतः सा मे स्फुटेऽप्यागसि। कान्ता गर्भगृहे गवाक्षविवरव्यापारिताक्ष्या बहिः, सख्या वक्त्रमभिप्रयच्छति परं पर्यश्रुणी लोचने।। (3/112)
औपम्यवाची-उपमा का एक अङ्ग। दो पदार्थों में सादृश्य के वाचक इवादि पदों को औपम्यवाची कहा जाता है-औपम्यवाचकमिवादि। आदि से यथा, तुल्य, सदृश, सम, वत् आदि का ग्रहण होता है। (10/19 की वृत्ति)
कथा-गद्यकाव्य का एक भेद। इसमें रसयुक्त कथानक का निर्माण गद्य में ही किया जाता है। कहीं-कहीं आर्या, वक्त्र, अपरवक्त्र, छन्दों का भी प्रयोग होता है। इसके प्रारम्भ में पद्यबद्ध नमस्कारात्मक मङ्गलाचरण होता है तथा खलादिकों के चरित का निबन्धन किया जाता है-कथायां सरसं वस्तु गद्यैरेव विनिर्मितम्। क्वचिदत्र भवेदार्या क्वचिद् वक्त्रापवक्के। आदौ पद्यैर्नमस्कारः खलादेवृत्तकीर्तनम्।। यथा, कादम्बरी आदि। (6/311)
कथितपदत्वम्-एक काव्यदोष। कहे हुए पद का ही पुनः प्रयोग कथितपदत्व दोष है। इसे ही पुनरुक्ति कहते हैं। यथा-रतिलीलाश्रयं भिन्ते सलीलमनिलो वहन्। यहाँ 'लीला' शब्द पुनरुक्त है। जहाँ पूर्वविहित का अनुवाद करना हो अथवा विषाद, विस्मय, क्रोध, दैन्य, लाटानुप्रास, अनुकम्पा, दूसरे को प्रसन्न करने, अर्थान्तरसङ्क्रमितवाच्यध्वनि, हर्ष और निश्चय में यह दोष न होकर गुण ही हो जाता है। यह वाक्यदोष है। (7/4)
कथोद्घात:-प्रस्तावना का एक भेद। सूत्रधार के द्वारा प्रोक्त वाक्य अथवा उसके अर्थ को लेकर कोई पात्र प्रवेश करे, उसे कथोद्घात कहते हैं-सूत्रधारस्य वाक्यं वा समादायार्थमस्य वा। भवेत्पात्रप्रवेशश्चेत् कथोद्घातः स उच्यते।। यथा र.ना. में सूत्रधार द्वारा पठित द्वीपादन्यस्मादपि० आदि पद्य को ही "एवमेतत्" कहकर पुनः पढ़ता हुआ यौगन्धरायण प्रवेश करता है। सूत्रधार द्वारा प्रोक्त वाक्य के अर्थ को लेकर पात्र के प्रवेश करने का उदाहरण वे.सं. में है। यहाँ निर्वाणवैरदहना० इत्यादि पद्य को सुनकर 'स्वस्था भवन्तु कुरुराजसुताः सभृत्याः' से उद्दीप्त हुआ भीमसेन "आः दुरात्मन्! वृथा