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________________ औदार्यम् ओजः प्रकार हैं- (1) सरो विकसिताम्भोजमम्भोजं भृङ्गसङ्गतम्। भृङ्गा यत्र ससङ्गीता सङ्गीतं सस्मरोदयम् ।। तथा (2) न तज्जलं यन्न सुचारुपङ्कजं न पङ्कजं तद्यदलीनषट्पदम्। न षट्पदोऽसौ न जुगुञ्ज यः कलं न गुञ्जितं तन्न जहार यन्मनः । पूर्व पद्य में विकसित कमल तालाब के, भ्रमरसंयोग विकसित कमल के, सङ्गीत से युक्त होना भ्रमरों के तथा काम का उद्दीपक होना सङ्गीत के विशेषक के रूप में स्थापित है जबकि उत्तर पद्य में उत्तरोत्तर के विशेषकत्व का निषेध है। 46 कहीं-कहीं विशेष्य भी उत्तरोत्तर विशेषण के रूप में स्थापित अथवा निषिद्ध किया जाता है । ( 10 / 101 ) ओजः - एक गुण । चित्त की विस्ताररूप दीप्ति ओज गुण - ओजश्चित्तस्य विस्ताररूपं दीप्तत्वमुच्यते। यह गुण रौद्र, बीभत्स और वीर रसों में प्रवृद्ध रहता है। वर्गों के प्रथम अक्षर से मिला हुआ द्वितीय अक्षर तथा तृतीय अक्षर से मिला हुआ उसी वर्ग का चतुर्थ अक्षर, टवर्ग, ऊपर, नीचे अथवा दोनों ओर रेफ से मिले हुए अक्षर, दीर्घ समास तथा उद्धत रचना ओजगुण की व्यञ्जक होती है। यथा-चञ्चद्भुजभ्रमितचण्डगदाभिघात - सञ्चूर्णितोरुयुगलस्य सुयोधनस्य । स्त्यानावनद्धघनशोणितशोणपाणिरुत्तंसयिष्यति कचांस्तव देवि भीम:।। (8/6-7) औत्सुक्यम् - एक व्यभिचारी भाव । इष्ट की प्राप्ति में काल का व्यवधान सहन न कर पाना औत्सुक्य कहा जाता है । चित्त का सन्ताप, जल्दबाजी, पसीना, दीर्घ निश्वास आदि इसके अनुभाव हैं- इष्टानवाप्तेरौत्सुक्यं कालक्षेपासहिष्णुता । चित्ततापत्वरास्वेददीर्घनिश्वसितादिकृत् । । यथा-- यः कौमारहरः स एव हि वरस्ता एव चैत्रक्षपास्ते चोन्मीलितमालतीसुरभयः प्रौढ़ा: कदम्बानिलाः । सा चैवास्मि तथापि तत्र सुरतव्यापारलीलाविधौ, रेवारोधसि वेतसीतरुतले चेतः समुत्कण्ठते । मम्मट ने इस पद्य में रस की प्रधानता मानी है। (3/166) औदार्यम्-नायक का सात्त्विक गुण । प्रियभाषण सहित दान तथा शत्रु और मित्र में समता औदार्य है- दानं सप्रियभाषणमौदर्यं शुत्रुमित्रयोः समता । (3/67)
SR No.091019
Book TitleSahitya Darpan kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamankumar Sharma
PublisherVidyanidhi Prakashan
Publication Year
Total Pages233
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Literature
File Size9 MB
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