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ऊर्जस्वी
एकावली में एक ही ज्ञाता रहता है जबकि यहाँ प्रत्येक ज्ञान का ग्रहीता भिन्न है। इस पद्य में भ्रान्तिमान् की सम्भावना भी नहीं है क्योंकि गोपियों आदि को कृष्ण में सादृश्य के कारण भ्रमवश प्रियत्वज्ञान नहीं हो रहा प्रत्युत वे यथार्थ में ही उसे प्रिय मानती हैं। 'अभेद में भेद' रूप अतिशयोक्ति में भी अन्य (अभिन्न) वस्तु को अन्य (भिन्न) रूप में माना जाता है परन्तु गोपियों आदि का प्रियत्वज्ञान तात्त्विक है, अन्य में अन्य रूप से अध्यवसित नहीं है।
कुछ आचार्य इस अलङ्कार को नियत रूप से अलङ्कारान्तरविच्छित्तिमूलक' मानते हैं, अर्थात् इसके मूल में अन्य अलङ्कार का चमत्कार विद्यमान रहता है। उदाहृत पद्य में अतिशयोक्तितत्त्व भी वर्तमान है परन्तु ज्ञातृ अथवा विषयभेद से एक वस्तु का अनेक प्रकार से उल्लेख होना यहाँ इस अलङ्कार का आधायक है। परिणाम, रूपकादि भी इसके साथ संयुक्त हो सकते हैं। (10/54)
ऊर्जस्वी-एक अर्थालङ्कार। जहाँ रसाभास और भावाभास किसी अन्य के अङ्ग बनकर उपस्थित हों वहाँ ऊर्जस्वी अलङ्कार होता है-अनौचित्यप्रवृत्तौ तदत्रास्तीत्यूर्जस्वी। ऊर्जा का अर्थ है-बल। यहाँ यह ऊर्जा अनौचित्य से प्रवृत्त होती है। यथा-वनेऽखिलकलासक्ताः परिहत्य निजस्त्रियः। त्वद्वैरिवनितावृन्दे पुलिन्दाः कुर्वते रतिम्।। इस पद्य में शृङ्गाराभास राजविषयक रतिभाव का अङ्ग है! (10/124 पर वृत्ति)
एकदेशविवर्तिन्युपमा-एक अर्थालङ्कार। जहाँ किसी का साधारण धर्म वाच्य हो और किसी का गम्य (प्रतीयमान) वहाँ एकदेशविवर्तिन्युपमा होती है-एकदेशविवर्तिन्युपमा वाच्यत्वगम्यत्वे। भवेतां यत्र साम्यस्य। यथा-नेत्ररिवोत्पलैः पद्यैर्मुखैरिव सर:श्रियः। पदे पदे विभान्ति स्म चक्रवाकैः स्तनैरिव।। इस पद्य में नेत्रादि और नीलकमलादि का सादृश्य वाच्य है जबकि सरोवर की लक्ष्मियों का नायिकाओं के साथ साम्य प्रतीयमान है। (10/35)
एकावली-एक अर्थालङ्कार। पूर्व पूर्व के प्रति उत्तरोत्तर को विशेषण के रूप में स्थापित करें अथवा उसका निषेध करें तो यह दो प्रकार का एकावली अलङ्कार होता है-पूर्वं पूर्वं प्रति विशेषणत्वेन परं परम्। स्थाप्यतेऽपोह्यते वा चेत् स्यात्तदैकावली द्विधा।। इनके उदाहरण क्रमश: इस