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आहतविसर्गत्वम्
ईहामृगः __ आहतविसर्गत्वम्-एक काव्यदोष। आहत से अभिप्राय है, विसर्ग का का ओ के रूप में परिणत हो जाना। निरन्तर विसर्ग का ओत्व भी श्रुतिसुखद नहीं लगता। यथा-धीरो वरो नरो याति। यह वाक्यदोष है। (7/4)
आहार्यः-अभिनय का एक प्रकार। इसका सम्बन्ध विशेष रूप से आहरणीय वेषविन्यास आदि से है। इसका प्रयोग नेपथ्य में होता है। (6/3)
ईर्ष्याजन्यमानम्-मानविप्रलम्भ का एक प्रकार। पति की किसी अन्य स्त्री में आसक्ति देख लेने पर, सुन लेने पर अथवा उसका अनुमान हो जाने पर स्त्रियों में ईर्ष्यामान होता है। अन्य नायिका विषयक रति का अनुमान तीन प्रकार से हो सकता है-स्वप्न में अन्य नायिका के सम्बन्ध में बड़बड़ाता हुआ देखकर, नायक में अन्य नायिका के सम्भोगचिह्न देखकर अथवा गोत्रस्खलन से-पत्युरन्यप्रियासङ्गे दृष्टेऽथानुमानिते श्रुते। ईर्ष्यामानो भवेत्स्त्रीणां तत्र त्वनुमितिस्त्रिधा। उत्स्वप्नायितभोगाङ्कगोत्रस्खलनसम्भवा।। यथानवनखपदमङ्गं गोपयस्यंशुकेन स्थगयसि पुनरोष्ठं पाणिना दन्तदष्टम्। प्रतिदिशमपरस्त्रीसङ्गशंसी विसर्पन्नवपरिमलगन्धः केन शक्यो वरीतुम्।। (3/206)
ईहामृगः-रूपक का एक भेद। ईहामृग से अभिप्राय है जहाँ नायक मृग के समान अलभ्य नायिका की कामना करता है-नायको मृगवदलभ्यां नायिकामञहते वाञ्छतीतीहामृगः। इसका कथानक इतिहास अथवा कल्पना का मिश्रण होता है। कुल चार अङ्कों में मुख, प्रतिमुख तथा निर्वहण सन्धियों का प्रयोग होता है। नायक और प्रतिनायक प्रसिद्ध धीरोद्धत नर अथवा दिव्य कोटि के पात्र होते हैं। दस उद्धत देव अथवा मनुष्य पताकानायक होते हैं। प्रतिनायक अपने में अनासक्त किसी दिव्य स्त्री के हरण आदि की इच्छा से प्रच्छन्न रूप से पापाचरण करता है। ऐसे अवसर पर कुछ-2 शृङ्गाराभास भी प्रदर्शित किया जाना चाहिए। युद्ध की पूर्ण सम्भावना हो जाती है परन्तु वह किसी व्याज से निवृत्त हो जाता है। महात्मा के वध की स्थिति में होने पर भी उसका वध नहीं होता। कुछ आचार्यों का मत है कि इसमें देवता, नायक तथा एक अङ्क का भी विधान है। अन्य आचार्यों का यह भी कथन है कि इसमें छह नायक होते हैं तथा दिव्य स्त्री के कारण युद्ध होता है। इसका उदाहरण कुसुमशेखरविजयः है। (6/260)